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त्रिपश्य ततः स्तुत्वा तमन्यां श्च यतीश्वरान् । विनीतात्मा यथा स्थानं निविष्टोसौ कृताञ्जलिः ॥ ४० ॥
कर युगल जोड़कर जिनदत्त ने तीन प्रदक्षिणा दीं । यत्ति शिरोमणि गणनायक प्राचार्य परमेष्ठी को प्रथम नमस्कार किया, पुनः शेष यति रत्नोंको क्रमशः नमस्कार कर यथोचित स्थान पर बैठ गया । विनीतात्मा उस समय भी हस्त युगल जोड़ विनय से बैठा ।। ४० ।।
पुण्याकुरे रिया शेषां कुर्वन् विच्छुरितां सभाम् । धर्म वृद्धि बभारणासो यतीशो दशनांशुभिः । ४१ ।।
हुए.
पुण्याकुरों से समस्त सभा को अभिसिंचित करते अपनी दन्त पंक्तियों से प्रस्फुरायमान किरणों से "धर्मवृद्धि हो" इस प्रकार यतिनायक गुरुदेव ने प्राशीर्वाद दिया ।। ४१ ।।
ततो दाबीषयं भक्ति नम्र मूर्ति मुनीश्वरम् । मादृश मुग्ध बुद्धीनां दुर्लभं तव दर्शनम् ॥ ४२ ॥
आशीर्वाद प्राप्त, हर्ष एवं भक्ति से नत्रीभूत यह जिनदत्त बोला, हे प्रभो मेरे जैसे मुग्ध - मन्द बुद्धि जनों को श्रापका दर्शन प्रति दुर्लभ है ||४२||
तावदेव जगन्नाथ मोहान्ध तमसावृतम् । विचरन्ति न ते यावत् भानोरिव बच्चोंशयः ।। ४३ ।।
तो भी है जगत के नायक ! जीव तब तक ही मोह रूपी अंधकार से व्याप्त हैं जब तक कि आपके वचन रूपी सूर्य की किरणें उन्हें प्राप्त नहीं होतीं । अर्थात् आपका धर्मोपदेशामृत हम जैसे मोही प्राणियों के मोहान्धकार को नष्ट कर सम्यग्दर्शन प्रदान करने वाला है || ४३ ॥
भवान्ष कूप संपाति विश्वमाशु भवश्यदः । भवादृशा न चेत् सन्ति रश्न दोषास्तमश्छिदः ॥ ४४ ॥
हे प्रभो ! आप समान- तमरच्छेदक रत्न दीपक के समान यदि न हों तो यह सारा संसार शीघ्र ही संसार रूपी अंधकूप में जा गिरे। श्रतएव श्राप रत्न दीप हैं। भव्य जीवों को पथ प्रदर्शन कर कुमार्गमियामार्गे से बचा कर सन्मार्ग - मोक्षमार्ग प्रदर्शित करते हैं ॥ ४४ ॥
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