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विषयाशा हुता शेन वह्यमाने उद्भव्य पुण्येन सुत्रा मेघो
जगद्वने ।
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यह सारा संसार विषयों की आशा रूपी अग्नि में धांय धांय जल रहा है। उसे शमन करने में आप मेघ समान हैं। भव्य जीवों के पुण्य से ही ग्राम अमृत मेघ वर्षण करने संसार में उदित हुए हैं ।। ४५ ।।
त्वत्पाव पद्म सङ्गोऽपि यस्तत्वं मन्व भाग्यः समुद्रेऽपि शंखकानां
नावबुध्यते । सभाजनम् ॥। ४६ ।।
श्रापके चरण कलमों में श्राकर भी यदि कोई तत्त्व का अवबोध नहीं करता है तो वह रत्नों से भरे सागर में जाकर भी मन्द भागी सीप, शंख को ही इकट्टा करने वाला है । अर्थात् आपके धर्मामृत का पान करके भी यदि आपसे स्व तत्त्व परिज्ञान नहीं करता तो वह मूर्ख है । मन्द भागी है । रत्नाकर से शंख संचय करने वाले के समान प्रज्ञानी है ॥ ४६ ॥
सूर्य चन्द्र मसौ यत्र कर प्रसर वजितौ । ज्ञामाख्यं तब तत्रापि चक्षुः प्रतिहतं न हि ॥ ४७ ॥
जिस स्थान में रवि एवं चन्द्र की तीक्ष्ण, शान्त किरणों का प्रकाश नहीं पहुँच सकता वहाँ भी प्रापके ज्ञान चक्षु की रश्मियाँ अप्रतिहत गति से पहुँच जाती है । अर्थात् भाप अपने निर्मल ज्ञान सूर्य द्वारा भव्यों के हृदय में स्थित अन्धकार को भी प्रकाशित कर निकाल भगाते हैं ॥ ४७ ॥
प्रत: प्रसादतो नाथ भवतां भव मेदिनाम् । शुश्रूषति मनः किञ्चिज्जन्मान्तर गतं मम ॥ ४८ ॥
प्रत: है भवभेदि ! स्वामिन् ग्रापके प्रसाद से मैं अपने पूर्व भव सुनना चाहता हूँ । मेरे मन को कृपा कर जन्मान्तर का वर्णन कर संतोष प्रदान करिये ।। ४६ ।।
कर्मणा केन योगीन्द्र प्राप्तं सौख्यं परं ततः ।
परं पररा मतर्पानां ततश्च सकलाः श्रियः ।। ४६ ।।
हे गुरुवर्य ! यद्यपि परम्परा से अर्थ अनर्थों का मूल है किन्तु मुझे किस कर्म के उदय से यह समस्त सुखों का साधन रूप सम्पदा प्राप्त हुयी है । है योगीन्द्र ! समस्त श्री लक्ष्मी प्राप्ति का हेतु क्या है ? ।। ४६ ।।
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