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संयोगश्च अगद्वन्द्य कथमासां चतसगाम । अत्यन्त दूर जातानां नाषिकामां ममा भवत् ॥ ५० ॥
हे देव ! इन चारों अप्रतिम सुन्दरियों का संयोग किस कारण से मिला है । यद्यपि ये प्रत्यन्त दूर देश में उत्पन्न हुयी हैं फिर भी मुझे वह दूरी अधिक नहीं हुयी। स्वयं मैं वहाँ पहुँच गया और अनायास ही संयोग हो गया। इसका क्या कारण है ? || ५० ।।
निशभ्येति बचस्तस्य प्रोवाच यति सत्तमः। सावधानो महाभब्य वर्गमानं मया शृणु ॥५१॥
इस प्रकार जिनदत्त द्वारा अपने भवान्तर पूछे जाने पर वे मुनि श्रमणोत्तम प्राचार्य शिरोमणी इस प्रकार बोले, हे भद्र ! यदि तुम्हें सुनना है तो सावधान हो जायो। मैं जो वर्णन करू उसे एकाग्र होकर सुनो ।। ५१ ।।
सुखाभासा हि रामारिण दुखान्येव हि भवता । कमाल निसानां सानि नामानि हेरिनाम् ।। ५२ ॥
यह जीव इन्द्रिय जन्य सुखों को सुख मानता है किन्तु वे सुखाभास हैं । निश्चय से वे दुःख ही हैं । कर्मजाल में बद्ध प्राणियों के जो कुछ भी सुख-दुःख हैं वे सब दुःस्व रूप ही है । चे क्षण भर को सुख जैसे प्रतीत होते हैं परन्तु विपाक में दुःख कारक ही हैं ।। ५२ ।। ।
प्रनादि कालतोऽनादि संसारे परिवर्तनाम् । जानात्येव जिनस्तानि संख्यातु न पुनः क्षमः ॥ ५३ ॥
इस परिवर्तन शील अनादि संसार में अनादि काल से जीव ने कितने दुःख भोगे हैं उन्हें सर्वज्ञ जिन ही जान सकते हैं । हे भाई! जिनदेव भी केवल जानते हैं उनकी संख्या नहीं गिना सकते । क्योंकि शब्द शक्तियों ही नहीं है । अतः संसार दुःखों का नि:शेष वर्णन करने में भगवान भी सक्षम नहीं है ।। ५३ ।।
अतोऽनन्तर मेवाहं भवं तब बवाभ्यहो। यत्तव चिराद् भद्र भवतो हित संभवः ॥ ५४ ।।
प्रतः इसके पूर्व भव को ही मैं कहता हूँ, हे भद्र ! उससे ही तुम्हारा शोघ्र हित सम्भव है ।। ५४ ।।
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