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कल्याण कारिणी स्वामिन् चेवियं गृहमेधिता। जायते जगती बन्ध वृर्थवार्य श्रमस्तव ॥ ७५ ॥
हे देव ! यदि ग्रह गृहस्थावस्था श्रावकों को कल्याणकारी होती प्रक्षय सुख का दाता होती तो फिर आपका श्रमणत्व जो जगत से वन्दनीय है व्यर्थ हो जाता। साधुजन का श्रम निरर्थक हो जाता ? कौन तप करता? ॥ ७५ ॥
सतो स्तु निविकरुपं मे वीक्षणं क्षरण भगुडारे । एतदेव प्रतः सारं संसारे साधु सत्सम ॥ ७६ ॥
अतएव हे साधुसत्तम ! इस क्षणभंगुर प्रसार संसार में एक मात्र सारभत बस्तु जैनेश्वरी दीक्षा है। अतः यही मेरे लिए शरण होवे ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय है । मैं निविकल्प रूप से यही धारण करने को तत्पर हूँ। अब पाप जिन दीक्षा प्रदान कर मुझे कल्याण पथ पर आरूढ़ करें ।। ७६ ॥
संविग्नस्य निशभ्येति वचस्तस्य महामुनिः । यया भीष्टं महा बुद्ध क्रियतामितिऽसौ सवीत् ॥ ७७ ।।
इस प्रकार संसार दुःखों से भयभीत अक्षय सुखाकांक्षी उस कुमार के वचन सुन यतीश्वर कहने लगे "हे महामते ! प्रापको जो अभीष्ट है वहीं कार्य करो । अर्थात् दिगम्बर दीक्षा से अलंकृत हो प्रात्म हित करो ॥ ७७॥
अत्रान्तरे द्रवोत्येष स्वमित्रं मति कुण्डलम् । पुत्रेभ्यो बोयतां भन्न यथा योग्य पदं लघु ।। ७ ।।
परम गुरु की आज्ञा पाते हो उसने अपने प्रतिनिकद उपस्थित मतिकुण्डल नामक मित्र से कहा-“हे भद्र आप शीघ्र ही मेरे पुत्रों को पथा योग्य पद प्रदान करो" ।। ७८ ॥
तेमाहतां समस्तास्ते प्रणम्यो प्राविशन्पुरः । योगिम पितरं सर्वे ज्येष्ठ मूचेपिता तप्तः ।। ७६ ।
मित्र ने तत्क्षण श्री कुमार के पुत्रों को बुलाया । सभी ने योगिराज को नमस्कार किया। तदनन्तर पिता को प्रणाम कर सम्मुख उपस्थित हुए। तब पिता ने ज्येष्ठ पुत्र से कहा ।। ७६ ।।