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देवानामपि दुःखानि देवानां
पश्यतामन्य
पदे पवे ।
मानसानि विभूति भूवनोत्तमाः ॥ ७० ॥
आप कहें देव पर्याय में सुख होगा सी भी नहीं है। वहीं पद-पद पर मानसिक कष्ट विद्यमान हैं। एक क्षण को भी स्वातन्त्र्य नहीं है, जब देवेन्द्र की जो प्रज्ञा होती है वही करना ही पड़ता है | पराभव और ईर्ष्या जन्य मानसिक कष्ट निरन्तर व्याप्त रहता है। झूरते रहते हैं | अपने से अधिक ऋद्धिधारियों के वैभव और भवनों को देख-देख कर ही मन में कुढ़ते रहते हैं ।। ७० ।।
पातनेयानि दुःखानि क्रन्दतां सरोज्झितम् । तंश्चनारक देशीया यु सदोऽपि भवन्ति ॥ ७१ ॥
शरण विहीन, कारण रहित स्वर्ग में रह कर भी नारकियों के समान ही आक्रन्दनादि दुःखों को सहते हैं ।। ७१ ।।
प्रतो ऽनादौ न कालेभ्राम्यतां भव कानने । सावस्था जायते यस्यां सुखं निदु:ख मङ्गिनाम् ॥ ७२ ॥
श्रतएव इस अनादि संसार में अनादि से भ्रमण करते हुए इस जीव ने उस अवस्था को कभी प्राप्त नहीं किया जहाँ दुःख रहित सुख की प्राप्ति एक क्षण के लिए भी हुयी हो । अभिप्राय यह है कि जो कुछ इन्द्रिय विषय जन्य सुख है भी तो वह दुःख पूर्वक ही है। सुखाभास है । यथार्थ नहीं || ७२ ॥
न चास्ति किञ्चनाध्यत्र यद्म सोढुं सहस्रशः । दुःखमेतेन जीवेन तन्नाथा जानता हि तम् ।। ७३ ।।
हे नाथ ! इस संसार में कोई भी ऐसा दुःख नहीं है जिसे इस जीव ने भोगा न हो । जानते हुए भी उसी को पाने का प्रयत्न कर दुःखी रहा ।। ७३ ।।
इदानीञ्च
प्रसादेन भवता भवाचित । प्राप्ते विवेक मानिय बोपके कि प्रमाद्यते ।। ७४ ।।
हे त्रिभुवन पूजित पादपद्मे ! ग्राज ग्रापके प्रसाद से मुझे विवेक रूपी माणिक्य दीप प्राप्त हुआ है । इस भेद - विज्ञान प्रदीप को पाकर भी क्या प्रमाद करता रहूँ ? ॥ ७४ ॥
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