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योतयासमं नैवभजे भोगाननारतम् । हिम लानांबजे नेव यौवनेनापि कि मम ।। ३७ ॥
इस प्रकार कामोद्दीप से पातुर कुमार का मन उसमें अडिग हो गया । वह पुनः विचारने लगा, इस अनिंद्य सौन्दर्य का अनारत भोग नहीं किया तो मेरे यौवन का क्या प्रयोजन है ? इस रूप राशि के साथ महनिश भोग करने से ही मेरा यौवन सफल है अन्यथा निस्सार जीवन है। इसके बिना मेरा जीवन हिम-तुषार से म्लान कमल की भाँति व्यर्थ है। निष्प्रयोजनीय है ।। ३७ ।।
करे करोति कि चापमस्यां सत्यां मनोभुवः । इयमेव यतो विश्व वशीकरण सन्मरिणः ।। ३८ ।।
धनुष बाण हाथ में धारण करने का क्या प्रयोजन यह स्वयं कामदेव स्वरूप है । यह एक मात्र विश्व को वशी करने में सम्यक् मणि के समान है। अन्यत्र क्या ? ॥ ३८ ॥
एवं विधायतः सन्ति संसारे रति भूमयः । विरज्यते सतो नातोज्ञात सत्त्वरपि ध्र वम् ।। ३६ ॥
यद्यपि कुमार पूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता स्वरूप है तो भी इस ससार भूमि की रति के प्रवाहरूप प्रेम से अपने को विरक्त करने में समर्थ नहीं हा। निश्चयत: तत्त्वज्ञ भो विषयासक्त हो जाते हैं ।। ३६ ।।
रूदावयोप्यहो यातां दृष्टिपातोप जोविनः।। मावृशां स्मर मुग्धानां मोहनेतासु का कया ।। ४० ॥
वह सोचने लगा, इसके सौन्दर्य से रूद्रादि भी दृष्टिपात मात्र से काम मुग्ध हो गये तो हमारे जैसे स्मर मुग्धों की उसमें क्या कथा है ? ।। ४० ॥
अधिशामि किमङ्गानि कि स्पृशामि पिबामि कि। नेत्र पात्र रिमामाणु सौन्वर्यामृत वापिकाम् ।। ४१॥
हा ! इस सौन्दर्य अमस की वापिका में किस प्रकार में प्रवेश करू इसके सुकोमल अङ्गों का स्पर्श किस तरह हो, नेत्रों रूपी पात्रों से शीघ्र ही पीना चाहता हूँ ॥४१॥ ३२ }