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ॐ नमः सिद्ध म्यो श्री सरस्वती देव्यै नमः परम गुरवे नमः अहंदभ्यो नमः । सशिष्य श्री १०८ प्राचार्य रत्न श्री महावीरकीर्तये नम: !!
जिनदत्त चरित्रम्
(प्रथम-सर्ग) महा मोह तमश्छन्न भुवनाम्भोज भानवः । सन्तु सिडयंगना संग सुखिमः संपवे जिन: ॥ १ ॥
महा मोह रूपी सघन अन्धकार से परिल्याप्त संसार रूपी सरोज को विकसित करने वाले सूर्य-जिनेन्द्र-अरहन्त. परमेष्ठी, सिद्धि रूपी अंगना-बधू का संयोग पाने वाले स्व-पद में सुखी होवें ॥ १ ॥
यदायत्ता जगवस्तु व्यवस्थेयं नमामिताम । जिनेन्द्र बवनाम्भोज राज हंसो सरस्वतीम् ॥ २॥
संसार में समस्त वस्तुओं का जैसा स्वरूप है उनका उसी प्रकार लक्षरण जिन जिनेन्द्र-सर्वज्ञ भगवान के मुखार-विन्द से निरूपित किया गया है उस राजहंसी के समान सरस्वती-वाग्देवी को मैं (मा. गुरगमद्र) नमस्कार करता हूँ।॥ २ ॥
विशेषार्थ :-संसार में अनन्त पदार्थ प्रपने-अपने स्वभाव में स्थित हैं उनका यथार्थ विवेचन प्रनन्त ज्ञानी ही कर सकता है । उस विवेचना का माध्यम वाणी-सरस्वती है। उसे यहां प्राचार्य श्री ने राजहंसी के समान कहा है क्योंकि राजहंसी कमलवन में क्रीड़ा करती है उसी प्रकार यह स्यावाद वाणी भी जिनेन्द्र प्रभु के बदनारविन्द में रमण करने वाली है, सथा राजहंसी के समान क्षीर-नीर न्यायवत् तत्त्वों के ययावत स्वरूप
का प्रतिपादन करने वाली है । अत: उस सरस्वती को नमस्कार करता E हूँ ऐसा प्राचार्य श्री का. प्रभिप्राय है।