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"हे चन्द्रमुखी ! संताप कारक शोक मत करो। तुम्हारी जो भी इच्छा, कामनाएँ हैं, मैं उन सबको सर्व प्रकार से पूर्ण करूंगा ।। १६ ।।
मयि तिष्ठति तन्यति त्वदावेश विधायिनि । प्रायसव समग क न निषो !
हे तन्वंगि ! मेरे रहते तुम्हें क्या कष्ट है, मैं तुम्हारे मादेश का अनुयायी हूँ। सभी अर्थों का विधायक तुम्हारी प्राज्ञा की प्रतीक्षा करता हूँ फिर व्यर्थ क्यों व्यथित होती हो ॥ २०॥
अम्बराणि विचित्राणि भूषणानि यथाषि। प्रहाण मद्गृहे सर्व स्वामित्वं च शुमे कुरु ।। २१॥
नाना चित्र विचित्र वस्त्र और अनेक प्रकार के प्राभूषण मेरे घर में भरे पड़े हैं उन सबको ग्रहण करो, और हे शुभे स्वामित्व स्वीकार करो। प्रर्यात् घर मालिकिनी बन कर सब पर प्राज्ञा चलाभो मेरी गृहणी बनों ।। २१ ।।
भकश्य भोगान मया साम बाले वाञ्छति रेकता। सम्पन्न सर्व सामग्यं सफली कुरु यौवनम् ॥ २२ ॥
हे बाले मेरे साथ मनोवाञ्छित भोगों को भोगो, समन सामग्री से सम्पन्न कर अपने यौवन को सफल करो। क्योंकि भोग्य योग्य प्रशेष सामग्री मेरे पास है॥२२॥
प्रतएव मया मुग्धे जिनश्त्तः प्रपञ्चतः। पयोनिधो परिक्षिप्तस्त्व संगहित चेतसा ॥ २३ ॥
हे मुग्धे ! तुम जिनदत्त का स्नेह छोड़ो, मैंने तुम्हारे सुख सौभाग्य के लिए उसे प्रपञ्च रचकर अगाध सागर में डाल दिया है । तुम्हारे संगम की लालसा से ही मैंने यह कार्य किया है ।। २३॥
प्रतः कान्ते गता शडा सविलासं समं मया । रत सौख्यं भजाजन्म सर्व बाधा विजितम् ।। २४ ॥
प्रतएव हे सुकान्ते, शोक का त्याग कर प्रानन्द पूर्वक मेरे साथ रतिक्रीड़ा करो, निशंक होमो, विलास पूर्वक प्राजन्म निर्बाध रति सुखानुभव करो॥ २४ ॥
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