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चिन्तयित्वेति तेनोक्ताः कुमारावपरे जनाः । कार्य किमपि भाण्डादौ युष्माभिः पतितेन हि ॥ १४ ॥
इस प्रकार सोच कर कृत निश्चय हुआ । उसी समय कुमार के यतिरिक्त अन्य जनों को बुलाया और आदेश दिया कि शीघ्र ही भाण्डादि को समुद्र में डालो कुछ विशेष कार्य है ।। १४॥
विभिद्येति समस्यां एतत् क्षितिम पारि उदासीनेषु सर्वेषु कुमारोऽबत तार सः ।। १५ ।।
भयातुर हो सबने कुछ-कुछ पानी में फेंकना शुरू किया। सबको खिन्न और उदासीन देख कुमार सागर में क्या है, ज्ञात करने को
उतरा ।। १५ ।।
ततशिन्ना
वस्त्रातं वेगतो गतवान सौ |
यथागाध जले पोतो वाहित श्च क्षणात् ॥ १६ ॥
उसी क्षरण उन लोगों के द्वारा जहाज छोड़ दिया गया और कुमार अगाध सागर तरंगों में जा हिलोरे लेने लगा। लंगर कट गया, यान चल पड़ा कुमार प्रथाह जल में क्रीड़ा करने लगा ।। १६ ।।
कुमार पात संज्ञात शोक शकुताहृदि । अजलाश्रु प्रवाहेण प्लावित स्तन मण्डला ॥ १७॥
कुमार उत्ताल तरंगों की क्रोष्ठ में जा छुपा यह ज्ञात होते ही कुमारी का हृदय अंकुश से छिन हो गया। मानों उसके उर को वस्त्र ने भेवन कर दिया । नयनों से अविरल प्रश्रुधारा बह चली ! ॥ १७ ॥
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सा कि कर्त्तव्यता मूढा यावत्तिष्ठति सुन्दरी । तावदम्येत्य सावादी सार्थ वाहेन दुःखिता ॥ १८ ॥
इधर यह कि कर्त्तव्यविमूढ़ सी होकर बैठ गई, क्या करूँ क्या नहीं, कुछ भी सूझ नहीं रही, हतप्रभ सी रह गई उसी समय वह लंपटी सार्थवाह वहाँ प्रा धमका और असफल प्रयास करता बोला ॥ १८ ॥
शशाङ्क मुखी माकार्षीः शोकं संताप कारणम् । सर्वाः सर्व प्रकारेख तवाशाः पूरयाम्यहम् ।। १६ ।।
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