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अधिक दहकाने का काम कर रहा था। उसे सर्वत्र उसका प्रभाव शून्यता का प्रामास दिखाने लगा ॥ ८ ॥
दृष्टं सहस्रशो रूपं प्रबलानां मया भुवि । तदस्याश्चरणा गुष्ठं लावण्येनापि नो समम् ।। ६ ।।
कि कर्त्तव्यविमूढ़ सा विचारने लगा, "मैंने संसार में हजारों एक से एक बढ़कर सुन्दरियों को देखा है किन्तु उन सबका रूप इस परम नयनाभिराम रमणी के पैर के अंगूठे की शोभा के समान भी नहीं है ॥ ६ ॥ ॥
धन्यः स एव संसारे सालसायत बलिया वीक्षते विश्व सुभगं यमीयं
लोखना । स्वयम् ।। १० ।।
वस्तुतः संसार में वही पुरुष धन्य है जो अलसाये नेत्रों से इस सुभम नारी रत्न का अवलोकन करता है, गलबाहें डालकर स्वयं इसकी रूपराशि का उपभोग करता है" || १० !
ममेयं केनोपायेन जायेत
यश
वर्तनी |
अगवानन्व दामिनी जीवितथ्य फलं लघु ॥ ११ ॥
आगे विचारता है "किस उपाय से यह जगत को प्रानन्द देने वाली मेरे वश में हो सकती है ? इसके वश में होने पर मेरा जीवन शीघ्र ही फलवत होगा अन्यथा निस्सार जीवन से भी क्या प्रयोजन ? ॥। ११ ॥
श्रथवा विद्यते यावत् कुमारो वीर सत्तमः । ताववस्याः सुखालोकं न कृतं भुख पङ्कजम् ॥ १२ ॥
अथवा यह विचार ही व्यर्थ हैं क्योंकि यह कुमार महान है, वीर और नरोत्तम है इसके जीते जी यह मेरे वश कदापि नहीं हो सकती । इसके रहते इस नारी रत्न के श्राननपज का सुखावलोकन नहीं हो सकता | अतः इस कांटे को निकालना होगा ॥ १२ ॥
निक्षिप्य तं वुशलोकं क्रूर न का कुले जले । निश्चितं मानयिष्यामि संसार सुख मेतया ॥। १३ ।।
हाँ, इसे बिना किसी के जाने चुपके से क्रूर नरकों से भरे सागर के जल में दूर फेंक कर निश्चिन्त हो इसके साथ संसार सार सुख का अनुभव करूंगा, अपने को सुखी मानूंगा" ।। १३ ।।
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