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हाग
उपचार नहीं करे । अर्थात उत्तम, मध्यम, जधन्य पात्रों को श्राहार दान नहीं दे तो उस धन और विवेक का कोई प्रयोजन नहीं है ।। १०६ ।।
एतस्य यानि पुण्यानि तानि नान्यस्य निश्वितम् । यवेतद्गृह मायातो दुर्लभो जगतां पतिः ॥ ११० ॥
वस्तुतः इसका महापुण्य है, इस प्रकार का पुण्य अन्य किसी को भी नहीं हो सकता । विश्व वन्द्य, संसार के पति स्वरूप ये मुनीश्वर इसके घर पधारे हैं ।। ११० ॥
ea e तदा ताभिस्तद्दानं भक्ति पूर्वकम् ।
मुहुर्मुनि मुहस्तं च पश्यन्तीभिः स विस्मयम् ॥ १११ ॥
वे चारों कन्या विश्मय से कभी पात्र को देखतीं तो कभी दाता को बार-बार दान की प्रशंसा करा पूर्ण श्रद्धालु हो गई । भक्ति से गद्गद् हो गई ।। १११ ।।
स्वयापि पारित: साधुर्भक्तितो मनसा परं ।
प्राशङ्का विहोता मातु स्तद्दाना सहना हि सा ।। ११२ ।।
हे भद्र तुमने भी परम भक्ति से अचिन्त्य श्रद्धा से उन मुनिराज को निर्विघ्न, निरन्तराय पारणा कराया । किन्तु तुम्हारी माता के मन में उस दान के प्रति कुछ असह्य भाव जाग्रत हुआ ।। ११२ ।।
भुक्त्वासौ पि जगामातो यथा भीष्टं मुनीश्वरः । द्वस्तिजोऽपि निजालयम् ।। ११३ ।।
अनुयुज्य प्रणम्याया
परम वीतरागी मुनीश्वर पारणा कर अपने प्रभीष्ट स्थान को विहार कर गये । (तुम) वणिक् भी कुछ दूर उनके पीछे-पीछे जाकर पुनः नमस्कार कर वापिस अपने घर मा गये ।। ११३ ।।
यत्त्वया विहितं भन्न सिद्धयत्येतन कस्यचित् ।
भाजनं सर्व कल्याण सम्पदां नियतं भवान् ।। ११४ ॥
हे भद्र तुमने जो कुछ उस समय पुण्यार्जन किया था उसी का यह फल सिद्ध हुआ है कि तुम सम्पूर्ण कल्याणों के पात्र हुए। सभी सुखों
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