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निविष्टा स्वास्ततः सर्वास्तत्रा साबधि साधवे । सन्मध्यात् प्रददौ किञ्चित् तद्वाक्यात्त तुषुश्व ताः ॥ १०५ ॥
वे भी वहाँ चारों बेठीं तथा उसी भोजन से लेकर उनके (शिवदेव के ) कहने पर अत्यन्त संतुष्ट हो प्रहार दान दिया। क्योंकि मालिक की आज्ञा बिना दूसरे के घर का दिया बाहार साधुजन नहीं लेते। इसलिए उसके कहने पर ही दिया ।। १०५ ।।
श्रचितयं श्च ता धन्य तम एष यस्यैवं दुर्ग तस्यापि धर्म कार्य
महामतिः । महोद्यमः ॥ १०६ ॥
ये विचारने लगीं, अहो ये महामति दिगम्बर साघुराज धन्य हैं । परन्तु यह श्रावकोत्तम महानतम धन्य है जो इस दारिद्र दशा में भी इसे ऐसे सुपात्र - उत्तमपात्र का लाभ हुआ है । इस अवस्था में भी धर्म कार्य मैं महा उद्यमशील है ।। १०६ ।।
नरनाथादयोप्यस्य पाव पद्माव वाञ्छन्तोऽपि लभन्ते न सुनेन्द्रानं
लोकनम् । किमुच्यते ॥ १०७ ॥
बड़े-बड़े राजा महाराजा भी इनके चरण कमलों के दर्शन को चाहने पर भी प्राप्त नहीं कर पाते ऐसे पुण्यवाली पात्र की इसे उपलब्धि हुयी है ॥ १०७ ॥
अयि लक्ष्मि किमन्बासि येनेवं गुण शालिने ।
स स्पृहा नर रश्नाय सात्विकाय न जायसे || १०८ ॥
न जाने लक्ष्मी श्रन्ध्री हो गई है ? क्या लक्ष्मी का विवेक नष्ट हो गया ? जो इस प्रकार के नर रत्न, गुणशाली, सात्विक, धन्य द्वारा स्पृहनीय इसके घर में नहीं भा रही है। हे लक्ष्मी क्या तुम नेत्र विहीन हो ? ॥ १०८ ॥
जन्मना वा धने नाऽपि विवेकेनापि किं नृणाम् ।
यवीदृशे महा पात्रे न किञ्चिदुप जयंते ।। १०६ ।।
संसार में मनुष्यों के पास यदि अत्यन्त धन भी हो, और विवेक भी हो तो क्या प्रयोजन ? यदि इस प्रकार के महा पात्र के लिए कुछ भी
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