________________
वोक्षितच ततस्तेन दुर्गते नेव सनिधिः । पुण्य पुउज इव स्वस्याभि मुखो वा स्व वेश्मनः ।। १०० ॥
गृहावलियों का उल्लंघन करते हुए उस महानुभाव शिवदेव के घर की अोर पाये । मन्द-मन्द गमन कर पाते हुए उन यतीश्वर को देखकर उसे अत्यानन्द हुा । वे मुनिवर मानों दुर्गति में उत्तम निधि ही हैं। पुण्य पुञ्ज स्वरूप हैं । वे उसके घर के सामने प्रा पहुंचे ॥१०० ।।
अग्ने भूयस्वतस्तेन प्रत्यग्नाहि प्रयत्नतः । उच्चस्थान स्थितस्यास्य चके चरण पावनम् ।। १०१ ।।
अपने सम्मुख पधारे महा मुनिराज को देख उसने स्वयं प्रागे पाकर परम श्रद्धा, भक्ति, विनय, निर्लोभता, सन्तोषादि सप्त गुण युक्त होकर परमाद से पडामा मा पूर्वमा प्रवेश कराया। उच्च स्थान पर विराजमान किये। पुन: उनके पावन चरणों का प्रक्षालन किया । १०१।।
तत् प्रवन्धोदकं कृत्वा पूजामष्ट विधामसौ। यावभोजयते मुक्ति धर्म मूत्ति मुनीश्वरम् ॥ १०२ ॥
गंधोदक मस्तक पर चढ़ाया। प्रष्ट-द्रव्य से पूजन कर प्रति भक्ति से नमस्कार किया। पुनः शुद्ध प्रासुक निर्दोष आहार दिया। वे साक्षात् धर्म मूर्ति स्वरूप मुनिराज भी समताभाव से आहार लेने लगे ॥ १०२ ।।
सूर देव यशोवेव नन्द इत्त वणिक सुताः । पञ्चावती जय श्रीश्च सुलेखा मदना बली ॥ १०३ ॥
उसी समय सूरदेव, यशोदेव और नन्ददत्त वणिक् की पुत्रियाँपद्मावती, जय श्री, सुलेखा एवं मदनावली वहाँ पायीं ॥ १०३ ।।
लारवा लेहनऊं तावत् सर्वाभरण भूषिताः । मत्त्वा सुवासिनो त्यस्य मातुराता गृहं क्षणात् ॥ १०४ ॥
ये सम्पूर्ण प्राभरणों से भूषित थीं। इन्हें सुभाषिनी समझ कर शिवदेव की माता ने शीघ्र अपने घर में से कुछ लेह पदार्थ लाकर दिया ॥ १०४ ।।
[ १७७