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बिके ! तुम यहाँ सुख पूर्वक निवास करो पुत्र के साथ, मैं स्वयं वहाँ जाऊँगा । यह सुनकर वृद्धा कहने लगी हे वत्स तुम दोनों ही मेरे लिए समान पुत्र हो, भला बाई चक्षु श्रोर दांयी चक्षु में से किसका नाश सह्य हो सकता है । तुम कामदेव की प्राकृति घारी अपने कुल की पताका स्वरूप हो, महासत्त्व मेरे प्राणों के लिए सतत जीवन्त रहो ।। १७-१८ ।।
चिन्तितं च कुमारेण जातेनाऽपि हितेन किम् । येनापत् कर्दमे मग्ना नोढताः प्राणधारिणः ।। १६ ।।
इधर कुमार विचारता है "उस मानव के जीवन से क्या प्रयोजन जो इस प्रकार की प्रतिरूपी को में पड़ी हुई मला का उद्धार न करे" ।। १६ ।।
स्वफलः प्रीणयन्त्येव पाण्थ सार्थान् हमा प्रपि । यत्र तत्रोपकाराय यतनीयं न कि तुभिः ॥ २० ॥
मार्ग चारी पथिकों को अपने मधुर रसीले फल प्रदान कर द्रुम गरण भी उन्हें संतुष्ट करते हैं तो क्या मनुष्यों के द्वारा मनुष्य का उपकार नहीं किया जाय ? अवश्य ही करना चाहिए ।। २० ।।
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प्राण नाशोपि कर्तव्यं परेभ्यः सुधिया हितम् । प्राशाः सुगन्धयत्येव दह्यमानोऽपि चन्वनः ।। २१ ।।
मागे सोचता है "प्राण नाश होने पर भी बुद्धिमान सत्पुरुषों को परोपकार करना चाहिए जिस प्रकार चन्दन जलाये जाने पर भी दिशाओं को सुगन्धित ही करता है ।। २१ ।।
स्व वाचा प्रतिपक्षा च जरतीयं मयाम्बिका । अपेक्षितुं न युक्तातः सु दुःखा सुत जीविता ।। २२ ।।
अपने वचनों द्वारा यह माता स्व रूप ज्ञात हुयी है। इस जरा श्रवस्था में क्या माँ को उपेक्षित करना उचित होगा ? पुत्र के जीवित रहते माँ व्यथित रहे क्या ? नहीं यह कदापि सम्भव नहीं । इसने मुझे पुत्र कहा है मुझे भी तदनुसार मातृ भक्ति का निर्वाह करना चाहिए ।। २२ ।।
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