________________
I
यत्र तत्र दुर्जनों की भांति कष्टक भी उत्पन्न हो गये । केतकी श्रादि प्रपनें सर्वोपरि गुणों से सुगन्ध से परिव्याप्त हो गये ।। ११३ ।।
सेक धूपन पूजादि योग्यं यद्यस्य मुरूहः । विषाय तत्तदा तस्य सेनाकारि विदोच्चता ॥
११४ ॥
जिन-जिन पादपों को जिस प्रकार सांचना चाहिए, धूपादि देना, पूजादि करना, क्या-क्या विधि विधान कर वे सब यथाविधि सम्पादित किये गये ।। ११४ ॥
सविभ्रमाकृता तत्र जात पुष्प समस्तापि कुमारेण वनस्पति
फलोभ्ववा । नितम्बिनी ।। ११५ ।।
सभी यथोचित अनुष्ठानों द्वारा समस्त बाग फूल - फलों से व्याप्त हो गया । कुमार के द्वारा सम्पूर्ण वनस्पति रूपी नारी सुसज्जित करदी गई ।। ११५ ।।
माकन्द कलिका स्वाद कल कूजित कोकिलम् । सुगन्धी कुसुमा मोद सुख लग्ध मधुघृतम् ॥ ११६ ॥
प्रात्र वृक्ष मञ्चरियों से श्रृंगारित हो गये। उन कलिकाओं का याश्वादन करने कोकिलाएँ गूंजने लगीं - कुह- कुह नाद गूंज उठा । सुगन्धित पुष्पों के विकसित होने से मत्त मधुकर समूह सुख प्राप्त कर हर्षातिरेक से मधुर गान गाने लगे ।। ११६ ।।
मावि मण्डपो पान्त कोडत् कामुक युग्मकम् । नाग बहली कृता श्लेष सफल क्रमुक ब्रुमम् ॥ ११७ ॥
मनोहर सघन माघवी लतानों के सुखद मण्डपों में कामक्रीड़ा विलासी मिथुन क्रीड़ा करने लगे । सुपारियों के उन्नत पादपों से नागवल्ली लताएँ लिपट गईं ।। ११७ ।।
नभोषतो संभ्रान्त किनरो कल गोसिभिः ।
त्यक्त पूर्वाङ्करा स्वाद कुरङ्ग क कदम्बकम् ।। ११८ ।। किरियाँ नभोमण्डल से इस भू-प्रदेश पर आकर कल-कल निनाद से मान गाने लगीं। उनके वीणा वादन के साथ गाये जाने वाले मधुर गान मुग्ध हुए हिरण समूह दुर्वा अक्षरा छोड़कर स्थिर खड़े हो गये ।। ११८ ॥
से
[ ७३