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पानी-पानी हो गई, हैरत में पड़ गयीं, फिर भी साहस कर राजा के प्राग्रहानुसार बोली, हे तात ! यही हमारे प्राणनाथ हैं किन्तु वर्ण से उनके समान नहीं हैं ।। २० ॥
ततः स्मित्वा भवस्सोऽपि तप्तबाम्बूनबमछविः। तथा यथाभ पांश्वित्र लिखिता इव तास्तदा ।।२१।।
इस प्रकार सुरत ही हंसकर झारने तपाये हुए सुवर्ण की भाँति अपने शरीर की वास्तविक छवि को धारण कर लिया। यह विचित्र सहसा परिवर्तन देखकर तीनों चित्र लिखित सी बैठी रह गयीं ।। २१ ।।
उवञ्चबूच्च रोमाश्च स्फूरत कञ्चक जालिकाः। समुस्थाय ततो लम्मा: स्वामि पावद ये मुदा ।। २२ ॥
उनका रोम-रोम उल्लसित हो गया। शरीर में सर्वत्र रोमाञ्च हो जाने से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों हर्षांकुरों की चोली ही धारण की है। वे शीघ्र उठी और अपने पतिदेव के चरणों में प्रानन्द से जा लिपटी ।। २२॥
य: पुरा क्षे तौबस्तासां विरह पावकः । प्रानन्दाथ प्राहेण सेनासो शमितो भ्रमम् ।। २३॥
जो पूर्व विरह से तीव्र ताप बढ़ रहा था वह पतिवियोग की अग्नि का संताप इस समय प्रानन्द के प्रभु प्रवाह से उसने (कुमार ने) बुझा दिया। निश्चय ही उनका हर्ष अपूर्व था ॥ २३ ॥
यव भावि तदा तासां सौख्यं किमपि मानसे । तत्र तस्यापि तत्सर्व कवि वाचामगोचरम् ।। २४ ॥
उस समय उनके मन में कितना सुख-संतोष हा वह सर्व कवि की वाणी से अगोचर है। अर्थात उसका कथन करना लेखक की लेखनी द्वारा नहीं किया जा सकता उस मिलन का दृश्य अपूर्व ही था ॥ २४ ॥
संभाविताश्च तास्तेन सलमा निकटे स्थिताः। भूषणाम्बर ताम्बल पुष्पः राज्ञा प्रपूजिताः ॥ २५ ॥ इस प्रकार कुमार के निकट समर्यादा, लज्जापूर्वक उन्हें देखकर
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