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यत्स दीधिका पक्ष : विकास नाप्यते स्फुटम् । कोटिसंरुद्धा दिवाकर करश्वतः ।। १८ ।।
प्राकार
यहाँ विशाल प्रासाद हैं । इनके चारों ओर प्रफुल्लित कमल बन विस्तृत हैं। चारों ओर मगन चुम्बी कोट है उसकी उन्नत सीमा का उल्लंघन करने में रवि भी असमर्थ हो जाता है । फलत: पद्मों (कमलों) को पूर्ण विकाश पाने में बाधा आती है || १८ ||
विशेषार्थ :- कमल स्वभावतः भास्कर की निर्मल किरणों के स्पर्श से पूर्ण प्रस्फुटित विकसित होते हैं। कोट की विशेष ऊँचाई होने से रवि रश्मियाँ पूर्णरूप से नहीं प्रापातीं। इसलिए बचारं सरसिज भी पूर्ण विकासोन्मुख नहीं हो पाते। वस्तुतः यहाँ इस नगर की सुरक्षा का महत्त्व प्रदर्शित किया है ।
यत्र कामिनी कपोलानां कान्तिं हतुं मितेंदुना । क्षालनाथ कलंकस्य भ्राम्यते सौध सनिधौ ॥ १६ ॥
इस विशाल नगरी के प्रासाद महल, मकान गगनचुम्बी हैं, प्रति उन्नत है। इन महलों के चारों मोर ही चन्द्रमा घूम रहा हो ऐसा प्रतीत होता है । कवि की उत्प्रेक्षा है कि मानों चन्द्र यहाँ की लावण्ययुक्त रमणियों के अनुपम कपोलों की सुन्दरता को चुराने के लिए ही वह (द) भ्रमण करता है। चोर रात्रि में ही चोरी करते हैं और नींद भी निशा में संचार करता दिखलाई पड़ता है। क्यों सुन्दरियों का सौन्दर्य अपहरण करना चाहता है ? तो उत्तर में - मानों वह शशि अपने मध्य में रहने वाले कल को धोना चाहता है । अभिप्राय यह है कि मन्दिरों ( घरों) की ऊंचाई अधिक होने से इनके प्रति निकट निशापति ( चन्द्रमा) घूमता प्रतीत होता है ॥ १६ ॥
सुदर्शन कृतानन्दाः सत्या सक्ताः समाः सबा । प्रद्युम्न मोबिनो यत्र समाना विष्णुना जनाः ॥ २० ॥
सातिशय पुण्य शालिनी इस नगरी में सर्व भव्य जन महान पुण्यवान हैं । देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति के प्रकर्ष को सूचित करने वाला यहां की जनता का रूप लावण्य है । इनके देखने मात्र से प्रानन्द उत्पन्न होता है अर्थात् सभी मनोहर हैं, सुन्दर हैं, दर्शनीय हैं। ये सतत् सत्य
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