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विचिन्त्यति प्रपच्छासो प्राञ्जलि र्जन बल्लभम् । स स्मिता तं स लज्जा व प्रसन्नाधीर लोचना ।। ५६ ।।
कुमार वहीं चुपचाप बैठा उसकी चेष्टानों को निहारता रहा । उसी समय कौतुक भरी विचार निमग्ना कुमारी ने हाथ जोड उस विश्व प्रिय कुमार से पूछा । उस समय उसका मुख लज्जा से अरुण हो गया, अधीर हो गयी, सस्मित कुमार ने उसे देखा ॥ ५६॥
नाथानुमान तो ज्ञातोऽनुभावस्तब यद्यपि । कि वृत्तमद्य यामिन्यां तपापोदं निवेदय ।। ५७ ।।
साहस कर बोली "हे नाथ यद्यपि अनुमान से रात्रि का वृत्तान्त मुझे ज्ञात हो गया है तो भी आप कृपा कर स्पष्ट बतलाइये" ॥ ५७ ।।
तेनावाचि स्वमेवात्र विज्ञासु तनु कि वे। जानामि किन्तु पत्रात ओतु चेतः समुत्तुकम् ।। ५६ ॥
कुमार बोला, मैं क्या बताऊँ ? अापका शरीर ही जता रहा है, मैं समझता हूँ आपका स्वास्थ्य इस समय पूर्ण लाभ प्राप्त कर चुका है जिसे तुम्हारा मुख कमल कह रहा है। फिर भी तुम सुनने को उत्सुक हो तो सुनो ।। ५८ ।।
यवं दायतां मुग्धे स्वालंकार कर खिका। सामुद घाटयते यावतावदृष्टो भुजंगमः ।। ५६ ।।
यदि रात्रि की घटना ज्ञात करना चाहती हो तो हे मुग्धे ! अपने अलंकारों का पिटारा खोलकर देख लो, जैसे ही उसने करण्ड को उघाडा कि भयंकर विषधर दिखाई पड़ा॥ ५६ ।।
सर्प सपंति जरूपन्तो सा ततोऽपसता जवात् । माभंषी रिति तेनोक्त विशालाक्षी विचेतनः ।। ६० ।।
निरीक्षण करते ही प्रोह, सर्प-सर्प इस प्रकार चीखती उससे शीघ्र ही दर भागी। विहंस कर कुमार ने कहा हे विशाल नयने भय मत करो, डरो मत वह तो अचेतन है मरा पड़ा है ।। ६० ।।
विषया यास्ततस्तस्या स्तेना कथियधा विधि । वृत्तान्तं स्तिमिताक्षी सा श्रौषी विधुवती शिरः ॥ ६१ ॥
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