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इस भाषण जलधि में प्राणनाय का जीवन रह नहीं सकता, क्योंकि अनेकों दुष्ट पक्षियों ने अपनी ती चोंचों द्वारा उन्हें सच कर दिया होगा, अथवा जल-जन्तुनों ने भक्षण कर लिया होगा या जल में ऊब-डूब कर प्राण त्याग दिया होगा ? हाय अब मैं क्या करूँ ! मेरे जीवन से क्या प्रयोजन ? अब मुझे मरण ही शरण है, (कुछ सोचकर) हाँ यही अच्छा होगा कि तलवार से घात कर मैं मर जाऊँ ? नहीं "यह योग्य नहीं" मानों उसके हृदय से एक अज्ञात ध्वनि हुयी ।। २६ ॥
अथवा धिगिर्म तेन धर्मज्ञेम निवारिता। आत्मघातं बिलम्बे वा मा कदाचित्तवागमः ॥ ३० ।। शोलं पालयतां सम्यक् स्थिराणामिह वाञ्छितं । भयोपि संभवत्येव सीतादीनामिव ध्र वम् ॥ ३१ ॥
इस तरह चिन्तातुर वह कमनीय कान्ता प्रात्मघात का विचार कर ही रही थी कि उसे अपने पतिदेव द्वारा उपदिष्ट सद्धर्मबोध जापत हो कहने लगा, धिक्कार है इस कुत्सित नोच विचार को। उन धर्मज्ञ पतिदेव ने कहा था जिनागम में प्रात्मघात सबसे बड़ा पाप है। उसे लगा जैसे अन्तध्वनि पा रही है। कोई धर्मशील सत्पुरुष उसे निबारण कर रहा है, हे देवि खोटा विचार छोड शीलरल का सम्यक प्रकार पालन कर, यह शीलवत सकल मनोवाञ्छित्तों का प्रदाता है । सीता महासती ग्रादि सतियों के समान तुम्हें भी पुनः पति संयोग की शुभ बेला प्राप्त हो सकती है । यह ध्रुव अटल सत्य है कि धर्म सबका रक्षक निष्कारण बन्धु है । अतः हताश नहीं होना चाहिए ॥ ३०-३१ ॥
"मानों उसकी तन्द्रा टूटी, निद्रा से जागी, आत्म-सत्त्व उद्बद्ध हुआ । वह पूर्ण दृढ़ता से सोचने लगी वस्तुतः मेरे पतिदेव ने मुझे सम्यक्त्व ग्रहण कराया है मैं उसे नहीं छोड़ सकती, आत्मघात मिथ्यात्व है, इसे कभी नहीं करूंगी 1 शीलवत का पालन करते हुए जीवन यापन करूंगी। किन्तु इस समय मैं पूर्ण असहाय एकाफी हूँ | यह कामान्ध राक्षस मेरे धर्म रत्न को चुराने पर उतारू है। इस दशा में क्या उपाय करूं ? किस प्रकार बच्चू ? कौन सहायी होगा ? इत्यादि तर्कणानों में झूलने लगी । सोच-विचार कर उसने निम्न प्रकार निर्णय लिया--
विधामि तयेतस्य कामात्तं स्याशु बञ्चमम् । भावि भद्रं प्रिय प्राप्तावन्यथा स्यात्तपोयने ।। ३२ ।।
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