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स्वभाव से रूप सम्पत्ति से समन्वित माननीयों में प्रासक्त जन भरत होने लगे किन्तु पण्यङ्गना-वेश्याओं से भागी जन विशेष रूप से बञ्चित किये जाते हैं ।। १२२ ।।
केतकी कुसुमोद्दाम गठ मुग्ध मधुपते । वियोगिनी मनः कुण्ड प्रज्मलत् विरहानले ।। १२३ ॥
चारों ओर ग्रामोद-प्रमोद का वातावरण छा गया। सभी अपनीअपनी प्रिय-प्रियाओं के मिलन की आशा मैं झूम उठे किन्तु इस मनोरम दृश्य से जबकि केतकी कुसुम विहंस रहे हैं, उछाम मुग्ध-उन्मत्त भौरे उनपर मंडरा रहे हैं उस समय वियोगिनियों-जिनके पतिदेव परदेश चले गये हैं-उनका मन रूपी सरोवर भयंकर विरह ज्वाला से जलने लगा ।। १२३ ।।
इत्याधनेक चेष्टाभिः प्रवृद्ध मदनोत्सवे । समये तत्र तो नौती जनर्मात गृहं गतौ ॥ १२४ ॥
इस प्रकार उस मदनोत्सव में नाना प्रकार की चेष्टाएँ हो रही थीं उसी समय उन दोनों नव दम्पत्तियों को मातृगह में प्रवेश कराया गया। तदनन्तर उन्हें शयनागार में विधामार्थ ले गये ।। १२४ ॥
निर्मले सुकुमारे च स ननं मुनि मानसे । पथा तथा स्थितौ तल्पे तो तवा मुदिताशयो ।। १२५ ॥
वह कुमार प्रत्यन्त निर्मल, सुकुमार और मुनिमन सम सरल चित्त था। दोनों ही शुभ परिणामों से युक्त यथा तथा शंया पर भासीन हुए ॥ १२५ ॥
लज्जा लोलं विलसवतुल प्रेम संभार मुग्धम् । गाहात कण्ठ रति रस वशं कौतुकोत् कम्पिचित्तं ॥ व नित्येवदन निहिता धीर विस्तारि नेत्राम् । रात्रि साम्यत्तरल हृदय प्रोषितां तत्तदानीम् ।। १२६ ।।
इस समय उस सुन्दरी के कपोल लज्जा से मरूण हो गये, उसने भी उस अनुपम रूप राशि में मुग्ध हो उसका गाढालिङ्गन किया। उस सुकूमारी का शरीर कम्पित होने लगा विस्फारित नेत्र वाली उसके मुख
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