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स्त्रियों में स्वाभाविक असूया होती है-सपत्नी अन्य सपत्नी को सहन नहीं कर सकती। इसी कारण मानों परदार सेवी को लक्ष्मी रूपी नारी तिरस्कृत कर छोड़ देती है ।।५।।
अन्यस्त्री भ्र धनुर्मुक्ता कटाक्ष शर पंक्तिभिः । न शोल फवचं भिन्नं येषां तेभ्यो नमो नमः ।। ५१।।
संसार में वे पुरुष पूज्य होते हैं जिनके हृदय परनारी द्वारा विमुक्त कटाक्ष रूपी बाणों से विद्ध नहीं होता है । वासना रूपी कटाक्ष वारणों से जिनका शील रूपी कवच भेदित हो जाता है वे पुरुष संसार में अपकीति के पात्र होते हैं। जो अपने शील रत्न का रक्षण करते हैं वे पूज्य और मान्य होते हैं ।। ५१ ॥
मालिन्यं स्व कुले येन जायते दूष्यते यशः। तत्कृत्यं क्रियते केन स्वस्य सौख्य समोहया ॥ ५२ ।।
परनारी सेवन द्वारा स्व कुल मलिन होता है, यश अपयश रूप हो जाता है, भला कौन है जिसके हित के लिए यह कार्य हुमा है ? अर्थात् परनारी सेवन से कभी भी सुख नहीं हो सकता ॥ ५२ ।।
कलत्र संग्रह: पुसा सतां सन्तान बद्धये। तत्रवान्ये समासज्य नरके निपतन्ति हि ।। ५३ ॥
सज्जन संतान-परम्परा वृद्धि के लिए कलत्र-पत्नी रूप में स्त्री को स्वीकार करते हैं उसमें भी यदि (उसमें भी) प्रत्यासक्ति रखते हैं तो नियम से नरक में पड़ते हैं। फिर पराई स्त्री सेवी की क्या-कथा ? आप इस पाप से अपनी रक्षा करो ।। ५३ ।।
सन्तोन्यव नितां वीक्ष्य प्रयान्या नत मस्तकाः । वृषभास्तीयवोन्मुक्त नोरधारा हता इव ॥ ५४ ॥
जो दुर्जन अन्य वनिता को देखकर, चापलूसी करता है, नत मस्तक होता है, उसकी विनय करता है वह धर्मरूपी क्षीर से उन्मुक्त हो-छोड़कर जलधारा के प्रवाह से पाहत के समान होता है ।। ५४ ॥
प्रकामिता ल कामेपि फलो न्यस्य यन्नरणाम । महायसमिदं नाम न परस्पादि धारणम ।। ५५ ।।