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पास ही रख लिया। वह शीघ्र ही अपने विनोदी स्वभाव और गंधर्व विद्या से जनवल्लभ सबका प्रिय हो गया ।। ६२॥
अन्येचुर्गवितं राज्ञः पुरस्तादिति फेनधित् । यथा देवान तिष्ठन्ति स्त्रियस्तिस्रो जिनालये ।। ६३ ॥
एक दिन किसी समाचार वाहक ने राजा से कहा, हे प्रभो यहाँ उद्यान के जिनालय में तीन सुव्रता नारियाँ हैं। तीनों प्रेम से रह रही हैं ॥ ६३॥
रूप लावण्य सौभाग्य कान्तेनां परमं पदम् । न हसन्ति न जल्पन्ति समं केनापि ताः प्रभो ॥ ६४ ॥
वे आतिशायी रूप लावण्य और सौभाग्य से सम्पन्न हैं कान्ति का प्रागार हैं, विदूषी हैं किन्तु किसी के भी साथ न बोलती हैं, न हँसती हैं, न कोई विनोद ही करती हैं। अपने ध्यानाध्ययन में ही तल्लीन रहती हैं ।। ६४ ।।
केनापि हेतुने त्येवं श्रुत्वा भूमी भुजामुहुः । भालोकित मुखोबादी द्विहस्येति स वामनः ॥ ६५ ।।
इस समाचार को सुनकर राजा के मन में एक जिज्ञासा हुयी और वह बार-बार उस बौना गंधर्वदत्त की प्रोर देखता हुप्रा विहंस कर उससे कहने लगा क्या आप उन्हें हंसा सकते हैं ? किसी भी निमित्त से उन्हें बाचाल कर सकते हैं ? ।। ६५ ।।
ग्रहो मानुष मात्रेऽपि भृगार मुख मानसाः। किमेवं स्थापय वं भो हासयाम्येषता महम् ।। ६६ ॥
अहो ! मनुष्य मात्र को शृंगार हास मुख वाले सभी को मैं हंसाने में समर्थ हूँ फिर उनकी क्या बात ? यह विचार कर वह गंधर्यदत्त कहते लगा, पाप क्या कह रहे हैं "मैं अवश्य उन्हें शीघ्र हँसाता हूँ"। देखो।।६।।
विकास हास सम्पन्नान प्रमानपि नरेश्वर । विनोदेन करोम्येष मानुषेषु तु का कपा॥ ६७ ॥
मैं मनुष्यों की क्या कथा ब्रुमों, पादपों को भी विकसित करने१४० ]