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उसके अग्नि पक्व होने पर भी उसी रूप में बने रहते हैं । ऊपरी धूलमिट्टी से फीके पड़ जायें भले हो परन्तु तनिक से प्रयास से ज्यों के त्यों रहे मिलते हैं। वर्तमान में हमारे माता-पिता अपने बच्चों को सुसंस्कारों से दूर रखते हैं। यही नहीं स्वयं कुसंस्कारों में भी उन्हें डालते हैं, यथा रात्रि भोजन कराना, क्रिश्चियनों के हाथों में पालन-पोषण कराना, वी. डी. मो., टी. बी. दिखाना, रेडियो सुनाना, सिनेमा ले जाना, अभक्ष्य भक्षण कराना इत्यादि । भोग बुरे नहीं यदि उन्हें योग्य सीमा और रीति से सेवन किया जाय । आशक्ति और अमर्याद भोगे भोग अवश्य दुर्गति के कारण होते हैं। जिस प्रकार रोगी रोग की पीड़ा सहन न होने से विरक्त भाव से अत्यन्त कटुक औषधि का सेवन करता है उसी प्रकार विवेकी पुरुष को पञ्चन्द्रिय विषयों को न्यायोचित मांग करना चाहिए । अर्थात् भोग के पीछे त्याग भाव रहना अनिवार्य है ।
अन्त में मैं इतना ही कहूंगी कि यह ग्रन्ध छोटा होकर भी जीवन को महान बनाने में पूर्ण सक्षम है । इसमें श्रावक धर्म और यति धर्म का सुन्दर समन्वय हुना है । हम प्रावक बनकर निर्गन्य मुनि मार्ग पर चलें और आत्मोत्थान करें।
यह ग्रन्थ हमें हिन्दी में देखने को प्राप्त नहीं हुआ । यहाँ पोन्नूरमल में "अन्यलिपि" पढ़ने का प्रयास कर प्रथम इसी चरित्र को पढ़ा । रोचक और शिक्षास्पद होने से मैंने इसे देवनागरी लिपि में उल्था किया। यह संस्कृत भाषा में श्लोकबद्ध है। प्रथम श्लोकों को नागरी लिपि में रूपान्तर कर पुन: हिन्दी भाषान्तर कर आबालवृद्ध की सुलभता के लिए प्रापके सामने उपस्थित करने का प्रयास किया है। इसमें यहां के श्री समन्तभद्र शास्त्री से सहायता प्राप्त हुयी। उन्हें हमारा प्राशीर्वाद है । मूल संस्कृत श्लोक भी साथ में रहेंगे। अतः विद्वज्जन तदनुसार शुद्ध कर अध्ययन करें। भाषान्तर होने से श्लोक एवं हिन्दी भावान्तर में श्रुटि रहना स्वाभाविक है अस्तु, साधुजन सुधार कर पढ़ें और अन्य