________________
गया। यह देख परित्यक्ता एकाकी वह सती विलाप करने लगी ।। ८१ ।।
प्राणनाथ अपश्यन्ती साउदर्श दिसोडिला । तप्ता लन्त ससेनेव चक्रवाकीव केवला ॥ ८२ ॥
प्राणनाथ विहीन वह चहुँप्रोर दिशाओं को देखने लगी। मानों सन्तप्त चक्रवाकू विहीन चकित चकवी ही विह्वल हो दिशावलोकन कर रही हो ॥ ८२ ॥
त्यवृष्टि जीविता नाथ त्वत्पाव कुलदेवता । स्वभाव प्रेम संसक्ता हा मुक्त्वास्मि कथञ्चन ॥ ८३ ॥
एकाकी अबला विमला प्रलाप करने लगी, हे नाथ ! आपकी दृष्टि मेरा जीवन है, आप ही मेरे कुल देवता हैं, भापके चरणों की सेवा ही मेरे प्रेम का प्रसाधन है, स्वभाव से में आपके प्रेम में प्राशक्त हूँ। किसी प्रकार श्राज में त्यक्ता हो गई। नहीं ! प्राणनाथ मुझे कभी नहीं छोड़ सकते, सम्भवतः यह मात्र कौतुहल कर रहे हैं ॥
८३ ॥
केलि लोखां विहायाशु मुख चन्द्रं मनः कुमुब माग्लान मार्च पुत्र
प्रदर्शय । विक्राशय ।। ६४ ।
हे प्रभो ! भविक क्रीड़ा उचित नहीं परिहास छोड़कर अपना मुखचन्द्र प्रकट कीजिये, हे प्रार्य पुत्र मेरे कुम्लाये मन कुमुद को विकसित करो ॥ ८४ ॥
मनो मे नयनोतरभं तप्तं विरह वन्हिना । विलीन सिंग हा पश्चात् किमागत्य करिष्यसि ॥ ८५ ॥
हे प्रभो ! नवनीत के समान मेरा मन विरह रूपी अग्नि से पिघल गया, यदि यह तरल हुआ नवनीत भू प्रदेश पर बिखर जायेगा तो फिर श्राकर क्या करियेगा ? ॥ ८५ ॥
तालतास्तर वस्ते ते क्रोडागास्ते न जानामि गतः क्वापि दृष्टि मध्व
विहंगमाः । वषत्रभः ।। ८६ ।।
हे देव, वे लताएँ, वे वृक्ष समूह, वे क्रीड़ा सरोवर में चहकते पक्षी
[ ६७