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समूह आदि न जाने कहाँ चले गये। मुझे कुछ भी दृष्टिगत नहीं हो रहा है । मैं तो केवल मात्र आपके मुखचन्द्र की ओर ही दृष्टिबद्ध हूँ ।। ८६ ॥
स स्नेह स्तावशी प्रोति चाटकाराश्च ते प्रभो। विभः स च वाक्षिण्यं सदा सकलं गतम् ।। ८७ ॥
आपका वह स्नेह कहाँ गया ? उस प्रकार की प्रीति एवं चाटु कारता मनवाद न जाने किधर गई ! हे प्रभो वह आयास, दाक्षिण्य चातुर्यादि आज सब विलीन हो गये ।। ८७ ।।
प्राश्वासयति मामत्र को विना भवताधुना। विरहार्ता विभावग्याँ भानु नेव सरोजिनीम् ।। ८ ।।
हे देव ! प्राज आपके बिना यहाँ मुझे कौन आश्वासन देगा। रात्रि में विरह से पीडित कमलिनी के समान मुझे कौन सान्त्वना देगा ? भानु विना कमलिनी की पीडा प्रसह्य होती है उसी प्रकार आपके प्रभाव में मै व्यथित हो रही हूं ।। ८८ ।।
यत्पुरा विहितं नूनं संयुक्तानां वियोजनम् । कुः सहोयं समायातो विपाकस्तस्य कर्मणः ॥ ६ ॥
मालूम होता है निश्चय ही मैंने किन्हीं संयोगी प्रेमियों का वियोग कराया होगा वही कर्म का विपाक फल भाज दुस्सह रूप में उदय आया है ॥ ८६ ॥
जन्मान्तरेपि संभूति: स्त्रीत्वेन भविता यदि । तदा जननो रेवास्तु मा वियोगः प्रिय रमा ।। ६० ॥
हे भगवन यदि जामांतर में कदा च पुन: स्त्री पर्याय मिले भी तो प्रिय का वियोग कभी नहीं होना । जननी ही रहो। वियोगिनी नारी न हो ।। ६० ।।
दीयतां दर्शनं पत्पुः समस्ता बन देवताः । दु.ख सागर मनाया उद्धारः क्रियता मम ।। ६१ ॥
हे समस्त वन देवता गण ! माप मेरी सहायता करो किसी प्रकार मुझे मेरे पतिदेव का दर्शन कराओ, दुःख रूपी विशाल सागर में निमग्न मेरा उद्धार करो।। ६१ || ६८ ]