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मुहमुखं तनूजाया मुहस्तस्य महामतेः । अप्ति जगाम नो पश्य स्तदानो नरनायकः ॥ ६७ ।। वह विस्मय से स्फारित नेत्रों द्वारा कभी पुत्री को और कभी कुमार को बार-बार देखने लगा। उस महात्मा कुमार को बारम्बार निहार कर उसे तृप्ति ही नहीं हो रही थी। वह नर नायक हतप्रभ सा सतृष्ण नेत्रों से उन्हें देखता ही रह गया ।। ६७ ।।
पप्रच्छ च महा बुद्ध किमयाजनि चेष्ठितम् । रात्रावत्र कुमारेण दशितं पन्नगाविकम् ॥ ६८ ॥
विस्मय से आतुर राजा ने प्राश्वस्त हो कुमार से निवेदन किया, हे महा बुद्धिमन् ! आज रात्रि को क्या घटना हुयी, किस प्रकार प्राप जयशील हुए, कन्या रोगमुक्त किस प्रकार की इत्यादि प्रश्न पूछे । उत्तर में विनम्र कुमार ने भी रात्रि में घटित घटना के साथ करण्डी में स्थापित नागराज को दिखलाया, शव को दिखाया एवं किस प्रकार तलवार के वार से उसे प्रारण विहीन किया इत्यादि वृत्तान्त नामराया ॥६.!।
कथितञ्च ततः सर्व कुमार्या जनकाय तत् । महो चित्रम संभाव्यं विधे बिलसितं भवि ।। ६६ ।।
उस समय सभी जनपद राजा से कहने लगे अहो संसार में भाग्य की लीला बड़ी विचित्र है शुभ रूप भाग्योदय होने पर असम्भव कार्य भी सुलभता से सम्भव हो जाते हैं ।। ६६ ।।
उपकारः कृतोऽनेन सोयं मम महात्मना । कुल कोति: प्रतापी में राज्यं येनाशु वोषितम् ॥ ७० ॥
इस महा पुण्यशाली सत्पुरुष ने मेरा महान उपकार किया है, मेरी कूलकीति, प्रताप और राज्य की रक्षा की है । आज मेरा राज्य वैभव और जीवन इसके द्वारा दीपित हुआ है ॥ ७० ॥
ददाम्यस्मै सुतामेनां बल्लोमिव मनोभवः । अतोऽपि गुण संभार भूषितः को भविष्यति ॥७१ ॥ उपयुक्त भावों से अभिव्याप्त राजा विचार करता है "यह मेरी
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