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जब तक इस शरीर रूपी कुटिया को जरा जर्जरित नहीं करती, वेग से चलने वाली तीक्ष्ण पवन रूपी मृत्यु जब तक उड़ा नहीं ले जाती उसके पूर्व ही इसके प्रक्रमण से बचने का प्रयत्न करना चाहिए ।। २२ ॥
विवेकोऽपि स्पिरोमूतो मनागस्य महा मुनेः । वचस्यैव हृदि व्यक्ता विज्ञाता च भवस्थितिः ॥ २३ ॥
इन मुनीश के श्रमृत रूप वचनों से मेरा मन स्थिर हुआ है कुछ विवेक जाग्रत हुआ है तथा मेरे हृदय में पूर्वभव की स्मृति भी जागृत हुयी है ।। २३ ।।
विदधामि पादमूले मुने रस्य विचिन्त्येति ततो दत्त्वा समुवाच
ततस्तप: ।
यतीश्वरम् ।। २४ ।।
के गुरु पादमूल
में पवित्र तप धारण
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"इसलिए अब में इन्हीं श्री विचार कर कुल निश्चय करता हुआ श्री गुरु राज को नमस्कार कर इस प्रकार प्रार्थना करने लगा ।। २४ ।।
करता हूँ P इस
यथा प्रसादतो नाथ भवतः स्व भवोमया । सम्यगध्यक्षतां नीतो तरामर
नमस्कृतः ।। २५ ।।
हे नरामर पूजित पाद पद्म ! गुरुदेव ! आपके प्रसाद से मैंने अपने भव प्रत्यक्ष की भांति स्पष्ट जान लिये । उससे जो मुझे ग्रानन्दानुभव और सन्तोष प्राप्त हुआ है ।। २५ ।।
न कल्प पादपः सुते न चकाम दुधान छ । चिन्तामरिण रचिन्त्यं यत् फलं त्वत्पाद सेवनम् ।। २६ ।।
वह कल्पवृक्ष, कामधेनू एवं चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति होने पर भी नहीं हो सकता । अर्थात् इनके सेवन से वह अचिन्त्य फल प्राप्त नहीं हो सकता है ।। २६ ।।
दावदग्धो जनः सर्वः सर्वतो बोध शून्यकः । स्थत्पाद पद्म पर्यन्तं यावदेति न भक्तितः ॥ २७ ॥
ये संसारी प्राणी - मानव तभी तक संसार रूपी दावाग्नि में जलते रहते हैं जब तक कि आपके चरण कमलों मैं भक्ति पूर्वक नहीं प्रति ।
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