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प्राकार शिखरा नद्ध पद्म रागांशुभि निशि। पतितैः खातिका नोरे रचा ङ्गा विरह व्यथाम् ॥ ६ ॥
यहाँ के उच्च प्राकार हैं, गगन-चुम्बी शिखर हैं, उन शिखरों में पद्यराग मरिणयाँ खचित हैं। रात्रि समय में इन मरिणयों की प्रभा से रजित खाइयों का जल अरूण हो जाता है। वह ऐसा प्रतीत होता है मानों विरहनी अंगनों की विरह व्यथा ही बिखर रही है ॥६॥
यत्र मुक्तयंव जायन्ते सङ्गमाभिमुखा मुदा । जवयं दिननाथस्य मन्यमाना इवाभितः ।। ६१ ॥
प्रसन्नता पूर्वक संगम की अभिलाषिनियां प्रसन्न वदना सुर्योदय की भ्रान्ति से चारों ओर से मुक्त हो जाती अर्थात् रात्रि में भी चारों ओर प्रकाश रहता जिससे रवि उदय हो गया यह भ्रम हो जाता और प्रेमियों का संयोग मुक्त हो जाता ।। ६१ ।।
यत्र प्रासाद संलग्न नीलांशु शवल: शशी। मुदेस्वच्छन्द नारीणां जायते निशि सर्वदा ।। ६२ ।।
यहाँ के प्रासादों में नीलमणियां लगी हैं इनकी प्राभा से हमेशा रात्रि में चन्द्र ज्योत्स्ना सबलित हो जाती अर्थात् चाँदनी सफेद होने पर भी नीलमरिणयों के प्रकाश में मिलकर धुंधली हो जाती। फलत: स्वच्छन्द नारियों को यह विशेष प्रानन्द दायक हो जाती । क्योंकि उन्हें आने-जाने में बाधा नहीं होती ॥ १२ ॥
( यह उज्जयिनी नगरी पृथ्वी की सारभूत सकल सम्पदाओं की जननी स्वरूपा है । यह पुण्यशाली महापुरुषों का पालन करने वाली धाय है । अर्थात् यहाँ महान् पुण्यशाली, धर्मात्मा जीव ही उत्पन्न होते हैं। )
समग्र वसुधा सार संपदा जन्म भूमिका । प्रावासा यत्रता पात्रा या नगा पुण्य शालिनाम् ॥ ६३ ॥
समस्त भूमि की सारभूत सम्पदा की यह जन्म भूमि थी। यह समस्त पुण्यशाली मनुष्यों का पालन करने वाली धाय के समान थी। उन्हें प्राश्रय-प्रावास प्रदान करने वाली थी ।। ६३ ।।
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