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तत्र विक्रम धर्माख्यो भूपो भूद भुवनान्तरम् । जग हे लोलया यस्य यशः पूर्णेन्दु सुन्दरम् ।। ६४ ॥
वहाँ धर्मविक्रम नाम का राजा हुअा। पूर्णिमा के पूर्ण चाँद के समान इसका यश लीला मात्र में समस्त भुवन में व्याप्त हो गया ।। ६४ ।।
शोभाये केवल यस्य धातुरङ्गम भूलम् । प्रतापे नेष यत्सेवा कारिताः सकलारयः ॥६५॥
अपने चतुरंग बल से यह शोभित हुपा। इसके प्रताप से समस्त शत्रु सेवा भाव को प्राप्त हो गये। प्रर्थात् सभी शत्रु राजा भी स्वयं सेवक हो गये ।। ६५ ।।
पद्मश्री रभवत्तस्य पव मधु विद्विषः । प्रिया प्रकर्षमापन्ना रूपाति गगण गोचरम् !! ६६ ॥
इस राजा को पद्म के समान कान्ति रूप युक्त पद्मश्री नाम की महारानी थी। जो अत्यन्त विदूषो गुणज्ञ भी थी। अपने रूपादि से नृपति को विशेष प्राकर्षित करने वाली थी ।। ६६ ।।
अथासीद्धम वेवाख्यः श्रीमानय वाणिजः । समुद्र इव नोराणां गुणाणामधि वासभूः ।। ६७ ।।
इसी उज्जयिनी नगरी में एक धनदेव नाम का वणिक् था। यह समुद्र के समान गम्भीर और अनेक गुणों का स्थान था। जिस प्रकार सागर में अनेकों रत्नों का पुज रहता है उसी प्रकार यह वरिणक भी गुण रूपी रत्नों का रत्नाकर स्वरूप था ।। ६७ ।।
यशोमतिरिति ख्याता कुल पोल समुज्ज्वला । बभूव वल्लभा सस्य कुशला गृह कमरिण ।। ६८ ॥
कुल शोल से समुज्जवल यशोमती नाम की इस सेठ की प्रिया थी। यह गृह कार्य में अत्यन्त निपुण थी॥ ६८ ।।
यथाकालं तया साद्धं भुनानस्य मिरन्तरम् । सुखं सतापिनो गातो भवानस्य तनरूहः ।। ६६ ।।
उस योग्य प्रिया के साथ यथायोग्य यथाकाल सुखानुभव करते हुए १७. ]