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कि वदन्त्या तथा चक्र श्रेष्ठिनोऽपि मनस्तदा ।
अनल्प काल सम्पन्न सफलाशेष वाञ्छितम् ॥ ७५ ॥
शनैः शनैः सेठानी को पुत्र प्राप्ति सम्बन्धी किंवदन्ती चारों और फैल गयी। सेठ ने भी सुना, कि अल्प काल में ही हमारा मनोरथ सफल होगा वाञ्छित पदार्थ की प्राप्ति की अभिलाष किसे नहीं होती ? सभी चाहते हैं ।। ७५ ।।
अथ केष्वपि जातेसुवासरेषु बभार सा। गर्भम भुलवचन भानु बिम्ब मिवेन्द्र दिक् ।। ७६ ।।
कुछ दिनों के बाद सेठानी ने गर्भधारण किया। जिस प्रकार मेघों से प्रच्छन्न सूर्य के प्रताप से दिशाएँ शोभित होती हैं उसी प्रकार गर्भस्थ बालक के प्रताप से वह शोभित हुयी ।। ७६ ॥
गुणानामिव भारेण गर्भस्तस्य शिशोस्तदा । मन्दं मन्दं मही पीछे विचक्राम मृगेक्षणा ॥ ७७ ॥
पुत्र रत्न के गुणों के भार से बोझल हुयी वह मृग नयनी मन्द मन्द गमन करने लगी। पृथ्वी पर धीरे धीरे चलती थी ॥ ७७ ॥
मलोमस मुलौ जातो स्तनौ तस्याः समुन्नतौ । समुत्पादादिव स्वस्य मन्य मामा वषः स्थिति ॥ ७८ ॥
उसके दोनों स्तनों का अग्रभाग श्यामवर्ण हो गया, स्तन उन्नत हो गये । उनके उत्थान - पतन से वह पीडा का अनुभव करने लगी ॥७८॥
गर्भस्व यश से वास्याः पाण्डुता अनि गण्डयोः । तेजसेब वोश्चक्रे सोत्क्षेपं वचन क्षणे ॥ ७६ ॥
उसके गण्डस्थल कपोल पीले पड गये मानों गर्भस्थ बालक का यश हो बाहर प्राकर बिखर गया हो। उसकी वचनावली के साथ चमकती fat का क्षेत्र मानों बालक के तेज का द्योतन करता था ।। ७६ ।।
रोमराजिस्तदा तस्था स्तथाभूत् वहिरुद्गता ।
शंकेहं पूर्व सन्ताप शिखिश्रम शिखेव सा ॥ ८० ॥
उसके शरीर की रोमराजी खडी हो गई अर्थात् सम्पूर्ण शरीर रोमाञ्चित हो गया । ऐसा प्रतीत होता था पूर्व में पुत्राभाव कर
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