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वस्तुतः इस संसार में वे ही पुरुष धन्य हैं, वे ही धनवान हैं, वे ही सुखी हैं जो स्वयं प्रपमे बाहुबल से धनोपार्जन करते हैं। वास्तव में उन्हीं की लक्ष्मी सार्थक है और वे ही मानशाली है ॥ ४१ ॥
भवन्त्येव
नून परिभवरस्पदम् ।
परपुष्टा सहन्ते हि पिकाः काकचयाघात कवर्धनम ।। ४२ ।।
जो पर धन से पुष्ट हैं अर्थात् पराये धन से जीविका चलाते हैं ये इसी प्रकार मेरे समान पराभव- तिरस्कार के पात्र होते हैं । यथा कोयल अपने बच्चे को काक के घोंसले में रख देती है, काकली उसे पालती है परन्तु जब यथार्थता प्रकट होती है तो काकों की चोंचों का श्राधात उसे सहन करना पड़ता है । कोयल समझते ही काकली चोंच से प्रहार कर उसे कदति करती है ।। ४२ ।।
प्रसादेन पितुः सर्वं पूयेते मम वाञ्छितम् । तथापीदं मनः खेद दायकं मान भञ्जकम् ॥ ४३ ॥
यद्यपि पिताजी के प्रासाद से मेरे सकल मनोरथ पूर्ण होते हैं, मुझे किसी भी वस्तु का प्रभाव नहीं है, सभी सुख साधन उपलब्ध हैं तो भी यह मान भङ्ग- अपमान प्रसह्य है मन को दुःखित करने वाला है ॥ ४३ ॥
नोपभोगाय पुंसामुलत चेतसाम् । पुरुषः ॥ ४४ ॥
युज्यते गोमिनी गुरुपत्नीव याजिता पूर्व
उन्नत चित्त वाले मनस्वियों के लिए पूर्व पुरुषों द्वारा संचित राज वैभव, गुरु पत्नी के समान भोगने योग्य नहीं है । अर्थात् जिस प्रकार गुरु पत्नी भोगने योग्य वस्तु नहीं है उसी प्रकार पराजित धन भी सत्पुरुषों द्वारा सेव्य नहीं है ।। ४४ ।।
यत सुतेभ्यः समोहन्ते सन्तः संतान पालनं तत्र हेतु
सर्व प्रकारतः । रर्थार्जनादिभिः ॥ ४५ ॥
बंधूनां
मुख पङ्कजम् ।
उदयेनेव योभानी विकाशि कुरुते नास्य चरितेना पितुः किमु ।। ४६ ।।
उदित होता हुप्रा रवि क्या अपने बन्धुजन पंकजों को विकसित नहीं करता ? करता ही है फिर मेरे इस चरित्र से क्या जो पिता के वैभव की वृद्धि न कर हानि करने वाला हुआ ।। ४५-४६ ।।
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