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वे सभी प्रत्याश्चर्य से चकित हो रहीं थीं। क्योंकि एक सुन्दरी राजकुमारी का इस प्रकार एकाकी प्रागमन प्राश्चर्य का विषय ही था। उन्होंने बार-बार उसे प्रतिबोधित किया-स्नेहपूर्वक उसका वृत्तांत पूछा। यह भी उनके वात्सल्य से प्रभिभूत हो कहने लगी, देवियो, मेरी कथा बहुत ही दुःखप्रद है-करुण कथा है ॥ ८१ ॥
देहिनां स्नेह बढामा संतापोऽस्ति पदे पदे । पश्य स्नेहोज्झित कुंकुभ में हिंसापयत् ।। २ ।।
हे सुबुद्ध, संसार में स्नेह से जकड़े प्राणियों को पद-पद पर संताप उत्पन्न होता है। देखो, स्नेह चिकनाई से रहित कुंकुम भी ताप का कारण नहीं होता। अर्थात् कंकूम में तेल डालकर बिद् लगाने पर वह भी कष्ट से छुटती है अन्य की क्या कथा? प्रेमियों का प्रेम भी कब वियोग रूप में परिणित हो जाय इसे कौन जाने ॥१२॥
वळ शृखल बद्धानां मुक्ति रस्ति कयञ्चन । स्नेह पाश परोतालां बन्धनं च पदे पदे ॥३॥
जो व्यक्ति वज्र की शृखला से प्रापाद मस्तक बंधा है—जकड़ा है उसे तो कदाचन बन्धन रहित किया जा सकता है परन्तु स्नेह-मोहरूपी पाश से जकड़े मनुष्य को पग-पग पर बन्धन ही प्राप्त होता है ।। ६३ ।।
कषितानीह कर्माणि भव भ्रमण कारणम् । तेषां हेतु तया ख्यातो बन्ष एव शरीरिणाम् ।। ८४ ॥
मह मोह पास ही संसार भ्रमरण का कारण है, मोह से कर्म पाते हैं और कर्मों से संसार भ्रमरण होता है । इस प्रकार चक्र का हेतू यह बन्ध का कारण मोह ही है ॥ ८४ ॥
तस्यापि हेतवः सन्ति विषया विश्व मोहिमः । विमुक्ता स्तः परं सौख्यं भुञ्जते भोग निस्पृहाः ।। ८५॥
इस मोह जाल के भी हेतू-निमित्त है, संसारी मोही जीवों की विषय वासना । ये विषय जीवों को मुग्ध करने वाले हैं अर्थात् पर परिगति के कारण हैं। जो जीव इन विषय-कषायों से मुक्त होते हैं वे ही निस्पृही प्राणी धन्य पुरुष परम सुख के भोक्ता होते हैं ।। ६५ ।। ११८ ]
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