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उक्त वृत्ता प्रधानेन तत्राग्राहि सुता मम । भरिणश्या भवतीत्येवं नि: शङ्का गच्छ पुत्रिके ।। ७६ ।।
चम्पानगरी में प्रवेश करते ही उसे उसके प्रधान रक्षक से भेंट हयी । बहुत सज्जन और धर्मात्मा था। उस प्रालित राजपूत्री ने अपना अशेष वृत्तान्त उसे सुनाया। सुनकर प्रधान ने कहा, तुम मेरी पुत्री हो। शंका मत करो, निर्भय हो अन्दर प्रवेश करो। ७६ ।।
प्राप्ता चकमतश्चम्पोद्यान मानन्द वायकम् । तत्राशितया जैनं सन पद्मानिकेतनम् ॥ ७७ ॥
नगर में प्रवेश कर कुछ चलने पर प्रानन्द दायक रमणीक फल पुष्प पत्र से प्रपूरित उद्यान प्राप्त हुना। वहाँ उसने एक विशाल शोभनीय, निकेतन-जिनालय देखा। जो ध्वजा पद्यादि का निकेतन था ।। ७७ ।।
प्रविशन्तो छ तत्रासौ निशखा शब्द पूर्वकम् । वटा विमलमत्या च वासी सेवक संयुता ॥७८ ॥
परमालाद और भक्ति से नि: सहि नि: साह शब्द उच्चारण कर जिनालय में प्रवेश किया। बहाँ उसने "विमलमती" (जिनदत्त की प्रथम पत्नी) को दास-दासी सहित देखा ।। ७८ ।।
तत: कृस जिनाधोश संस्तवा वन्वितायिका। प्रासनावि विधि कृत्या विश्रान्ता वादि सावरम् ।। ७६ ।।
प्रथम ही उसने श्री जिनेन्द्र प्रभु की भक्ति, स्तुति कर दर्शन किये, पुनः जिनालयस्थ श्री १०५ मार्यिका संघ को वदामि किया। उचित प्रासनादि ग्रहण किया। तत्पश्चात् विमला देवी ने सखियों सहित पूछा ।। ७६॥
कुतः साध्वी समायाता सुन्दराधारकारिणि । क्षेमं . ते समस्तानां तातादीनां तथा शुमे ।। ८० ।।
तुम्हारी कुशल तो है ? हे सति ! कहाँ से पायो हो ? हे सुन्दराकार धारिणि ! आपके माता-पितादि क्षेम पूर्वक हैं न ? ॥ ८० ।।
विस्मिताभि स्सतस्ताभि बहुधा प्रतियोषिता । प्रवादीसखि विस्तीर्णा कथा मे दुःख दायिनी ॥१॥