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लगा। उसे लगता मानों वह तीनों लोकों में व्याप्त है अर्यात हर क्षरण प्रत्येक प्रोर उसे वही सुन्दरी दिखलायी पड़ती ॥ ५१-५२ ।।
जिगासा तस्तदा सस्य पञ्चमेन निवारिताः । हंकाराः सन्ततश्वासः प्रमलानाधर पल्लवः ॥ ५३॥ समन गुण सम्पूर्ण कर्ण शूल करं परम् । गीतं तेन तवा मेने मनोमं ज्यार वोपमम् ।। ५४ ॥
अब उस काम द्वारा यह हुंकार भरता, सतत दीर्घ श्वासों से उसके अधर पल्लव सूख गये-म्लान हो गये। उसे गुण पूर्ण मधुर संगीत करशूल के समान प्रतीत होते । वह कामदेव से उत्पन्ना है उसी का स्वर यथार्थ स्वर है वही सुनना चाहिए। शेष सब करणों को कष्टदायी ही हैं ।। ५३-५४ ।।
किञ्च प्रसार यामास भूयो भूयो भजश्चयं । मलिङ्गितु मिय योम भूमि माशा स्तयंव च ।। ५५ ॥
कुमार की चेष्टा उग्रतर विपरीत होने लगी, वह शनैः शनैः बार-बार अपनी भुजाओं को फैलाता, कभी प्राकाश को मालिङ्गित करना चाहता तो कभी भूमि को और कभी दिशापों को । अभिप्राय यह है कि उसे चारों पोर, ऊपर-नीचे सर्वत्र वही रूप सुन्दरी प्रतीत होती पौर वह उसी छाया के पीछे दौड़ने को प्रातुर हो उठता ।। ५५ ।।
मूर्छा प्रलाप वर्ण्य स्वेद रोमाञ्चकंपितं । तस्यासोत् सततं गात्रं सन्निपात ज्वराविव ।। ५६ ।।
उसे रह-रहकर मूर्छा आ घेरती, मनमाना प्रलाप करता, मुख कान्ति कोण हो गयी-पसीना छूटने लगा, शरीर रोमाञ्चित होने लगा, कांपने भी लगा वपु, जिस प्रकार समिपात ज्वर (त्रिदोष से उत्पन्न वर) के कारण पादमी हिता-हित विवेक शून्य, ज्ञान हीन होकर यदा-तहा पाचरण करने लगता है उसी प्रकार उस कुमार की दशा हो गयी ।। ५६ ॥
इत्यालोच्य ततस्तस्य सुहाः स्मर संभावाम् । वशामावेदयामासु राशु ताताप तत्पराः॥५७ ॥