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इस प्रकार कुमार को काम के वारणों से विद्ध और उसके दश अवस्थाओं को देखकर उसके मित्र ने उसे कामासक्त जाना । शीघ्र ही उसके पिता के पास जाकर सकल वृतान्त कह सुनाया ।। ५७ ।।
यावन्मानधनो धापि न याति दशमी मयम् । दशां कन्तो कुमारस्य कुछ तावत् समीहितम् ॥ ५८ ॥
मित्र कहने लगा, हे मान्यवर ! आपके पुत्र की दयनीय दशा है । वह काम वेदना से अत्यन्त पीडित हो चुका है इसकी दसमी दशा जब तक प्राण घातक न हो उसके पूर्व ही शीघ्र उपाय करना चाहिए। हे मानधन ! शीघ्र ही उसके समीहित की सिद्धि करिये । अन्यथा मरण ही है ॥ ५८ ॥
उदन्तं तं समाकर्ण्य रोमाञ्च कवचाचितः । सशस्यं
मित्रों की बार्ता सुन सेठ हर्ष से झूम उठा, शरीर रोमाञ्चितहो गया, उसका मुख मण्डल हास्यमय हो गया और उन्हें वह बार-बार देखने लगा ।। ५६ ।
॥ ५६ ॥
कुण्ठी भवन्त्यहो यस्य चेतसो वा सूचयः । तस्थापि भवने शक्ता: कटाक्षाः किल योषिताम् ॥ ६० ॥
वह विचारने लगा हो। जिसके चित्त को भेदन करने में वज्र सूचि भी भौंथरी हो गई, उसी के मन को योषिता कटाक्षों ने भेदित कर डाला ।। ६० ।।
संचिन्तयेति ततस्तांश्च संविभज्य जगामासौ
ताम्बूलांवर भूषः ।
यत्रास्ते
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बेहसंभवः ॥ ६१ ॥
इस प्रकार विचार कर और सूचित करने वाले जनों को ताम्बूल, वस्त्र एवं प्राभूषणादि प्रदान कर वह अपने पुत्र के पास गया ।। ६१ ॥
तं विलोक्य तथा नूतं श्रेष्ठिनेति विचिन्तितम् ।
दुः साध्या कार्य संसिद्धिः कुमारः पुनरीवृशः ।। ६२ ।।
पुत्र
की दयनीय एवं प्रत्यन्त क्षीरण दशा को देखकर वह चिन्तित