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एकान्त रूप से सत्य भी नहीं है क्योंकि एकान्त से प्रकार्य होता तो श्रुति पुराणों में ये कथानक किस प्रकार मिलते । हजारों उपाख्यान इस प्रकार के उपलब्ध होते हैं ।। ४१ ।।
द्रौपदी मुदिता भ्रात पञ्चकं जगमुत्तमम् । तातादि विदिता चके कृतार्थ काम के लिभिः ॥ ४२ ॥
सुनो मैं तुम्हें उदाहरण सुनाता हूँ "द्रौपदी अपने जेठ देवर पांचों उत्तम भाईयों पर मुग्ध हुयी पञ्च भारी कहलायी। वह सभी के साथ स्नेह से काम लीला में रत हुयी । पाँचों को रति प्रदान कर कृतार्थ किया ।। ४२ ॥
समस्त स्मृति शास्त्रज्ञो नरामर नमस्कृतः । भारद्वाज तपासातो नैव कि भ्रात जायया ।। ४३ ।।
भारद्वाज तपस्वी, समस्त शास्त्र और स्मृतियों का ज्ञाता था, मनुष्य क्या देवों से भी नमस्करणीय था तो भी अपनी भौजाई पर प्रासक्त हो गया । क्या तुम नहीं जानती ? ॥ ४३ ।।
स्त्रियं वा पुरुषं वापि स्वयमेव समागतम् । भजते यो न तस्यास्ति ब्रह्महत्या निशंसयम् ।। ४४ ।।
जो स्त्री या पुरुष स्वयं प्राये हुए पुरुष या स्त्री का सेवन नहीं करता वह निश्चय ही ब्रह्महत्या पाप का भाजन होता है । अर्थात पुरुष के सामने स्त्री और स्त्री के समक्ष कोई भी पुरुष प्राकर भोग भिक्षा याचना करे तो उसे अस्वीकार नहीं करना चाहिए क्यों कि उसके साथ भोग न करने से उसे ब्रह्मघात का पाप लगता है इसमें संशय नहीं है ।। ४४ ।।
तयावाचि महायुद्ध वक्त मेवं न युज्यते । शस्यते नहि केनापि स्नुषा श्वसुर सङ्गमः ॥ ४५ ॥
इस प्रकार के अधर्म युक्त पाप कारी सेठ के बचनों को सुनकर वह . पतिव्रता, परम धैर्य से कहने लगी। हे बुद्धिमन्, प्रापको ये वचन कहना युक्तियुक्त नहीं हैं, शोभनीय या उचित नहीं हैं पुत्रवधू श्वसुर के साथ सङ्गम करे यह किसी के द्वारा भी प्रशंसनीय-मान्य नहीं हो सकता ॥ ४५ ॥
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