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मकर्त्तव्ये कथं चित्त मीदृशे भजतां मम । उत्साहं ताशे जन्म स्मरन्त्याः स्थ कुले धुना ॥ ३७ ॥
मैं श्रेष्ठ कुल प्रसूत, इस प्रकार के प्रकरणीय - अनुचित कार्य को भला किस प्रकार कर सकती हूँ । उच्चकुलीन महिला का चित्त नीच कार्य में उत्साहित नहीं होता। इस समय मैं अपनी मर्यादा का स्मरण कर इस घृणित कार्य को किस प्रकार कर सकती हूँ भला ॥ ३७ ॥
सार्थवाहस्तदाकर्ण्य लामुवाच मनस्थिति । जानाम्येव तथाप्युच्च ममिभि द्रवति स्मरः ।। ३८ ।।
इस प्रकार युक्ति युक्त, नीति वाक्य सुनकर वह मोहान्ध सार्थवाह विवेक होन कहने लगा 'हे मनस्विनि' आपका कथन सर्वथा सत्य है । मैं इसे सम्यक् प्रकार जानता हूं फिर भी यह दुर्वार काम मुझे अतिशय पीड़ा दे रहा है ॥ ३८ ॥
मामयं मोहयामास तथा कामो यथा शुभे । लज्जा यशो विवेकाद्याः स्पृश्यन्ते मनसा न मे ॥ ३६ ॥
हे शुभे इस समय यह कामज्वर का वेग इतनी तीव्रता प्राप्त कर चुका है कि इससे अभिभूत मेरे मन को, लज्जा, यश, विवेक आदि स्पर्श भी नहीं कर सकते हैं। मैं मोहान्ध हो चुका हूं ॥ ३६ ॥
कन्दर्प सर्प वष्टस्य मूच्र्छतो मे मुहुर्मुहुः । समस्तोपाय मुस्तस्य वीयतां सुरता मृतम् ।। ४० ।।
हे कल्याण, कदर्प रूपी भुजंग से डसा मैं बार-बार उस विष से मूच्छित हो रहा हूँ । इस मूर्च्छा के शमन का एक मात्र उपाय तुम्हारे ही पास है । अत: प्रतिशीघ्र सुरतामृत-रति रूपी अमृत प्रदान कर मुझे इस पीडा से मुक्त करो। तुम्हारा प्रेम रस ही मेरा जीवन उपाय है ।। ४० ।।
एकान्तेन न चाकार्य मेतत्तव श्रूयते हि पुरागंषु श्रुतौ खेव
तनुवरी । सहस्रशः ॥ ४१ ॥
फिर हे तनुदरी - हे कृशोदरी सुनो ! प्राप जो कह रही हो वह
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