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लिया और उद्यान से निकल गया। उसे एकाकी वहीं सोते हए छोड़ गया ॥ ३३ ॥
उन्मोटिताङ्ग यष्टिः सा यावदुत्तिष्ठते ततः । अरण्य वा विमानं तवद्राक्षी छयितोज्झितम् ।। ३४ ।।
प्रात: काल हुमा, पौ फटी, निर्भय सोई कुमारी की निद्रा टूटी, वह अंगडाई लेती उठ बैठी, इधर-उधर दृष्टि डाली तो विमान और उद्यान को पतिदेव रहित पाया ॥ ३४ ॥
बर्श च दिशस्तेन विनास तिमिरा इव । व्योमासोमं महीं मोहजननी मात विभ्रमा ॥ ३५ ॥
भयातुर हो चारों ओर दिशाओं में नजर दौड़ाई, सर्वत्र काल समान घोर तिमिर दिखाई दिया। प्राकाश में चन्द्र भी नहीं था। मही मोह उत्पन्न करने वाली भ्रम पैदा कर रही थी । अर्थात् झुरमुट में कुछ भी स्पष्ट प्रतिभासित नहीं हो रहा था ।। ३५॥
विललाप ततो यूथ भ्रष्टेव हरिणी भृशम् । विषाद तरलां दृष्टि पातयन्ती समन्ततः ।। ३६ ॥
अपने समूह से बिछुड़ी हिरणी मृगी जिस प्रकार व्याकुल हो विलाप करती है उसी प्रकार वह करुण क्रन्दन करने लगी। विषाद युक्त दष्टि बार-बार चहूं पोर फेरने लगो, प्राँखें फाड़-फाड़ अपने प्रियतम को निहारने का असफल प्रयत्न करने लगी। जिस ओर दृष्टिपात करती निराश लोटती ।। ३६ ।।
जीवितेश समुत्सज्य मामत्र क्व गतो धुना। निमेष मपि ते सोळु वियोगमहमक्षमा ॥ ३७ ।।
हे जीवन रक्षक । मुझे अकेली छोड़कर इस समय आप कहाँ गये ! प्राणेश ! पापका वियोग एक क्षण भी सहन करने में असमर्थ हैं॥ ३७॥
नर्माशर्म कर कान्त त्यज चित्त विवाहि मे। मालती मुकुल ग्लानी पत्ते हि हिममारुतः ॥ ३ ॥ हे देव ! अब हास-उपहास का त्याग करिये, शीघ्र मेरी दशा
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