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पाश्वस्त हो जाने पर राजा ने उनसे पूछा, हे वेवियों, यह महाभाग महा पराक्रमी कहता है कि (प्राप तीनों को) ये मेरी भार्या है। क्या यह सत्य हैं ? अथवा मृषा-झूठ है ? ॥ १५ ॥
अन्योन्य मुखमालोक्य ताभिरूचे पति प्रभो। न भवत्येव जानाति पाता तस्यैव केवलम् ।। १६ ।।
यह सुनकर वे तीनों एक दूसरे का मुख देखने लगी कुछ क्षण विचार कर कहने लगीं, हे नरेश यह हमारा पति नहीं केवल हमारे पतिदेव की वार्ता को जानने वाला है । अर्थात् हमारे पति का वर्णन यथार्थ करता है परन्तु यह स्वयं वह नहीं है ॥ १६ ।।
अत्रान्तरे कुमारोपि पुल काञ्चित विग्रहः । प्राधिर्भवत् स्मितं वक्त्रं पिदधाति स्म बाससा ॥१७॥
इसी डीज कुमार दुर्ग हे पुरित हो गया। वह सुख को वस्त्र से इंक कर हंसने लगा और तत्काल रूप परिवर्तन कर लिया ।। १७ ॥
भ्रयोप्युवाचभूपाल: पुश्यः सम्यक प्रविच्यताम। ताभि रूचे न सादृश्यमपि तस्यास्ति कि बहुः ॥ १८ ॥
पुन: नृपति ने पूछा हे पुत्रियो ! आप सम्यक् प्रकार विवेचना कर यथार्थ कहो क्या यह आपका पति है ? वे कहने लगी, देव ! इसमें हमारे पतिदेव की तनिक भी समानता भी नहीं है पति होने की फिर क्या बात है । हम अधिक क्या कहें प्रापसे ॥ १८ ॥
कूमारेण ततस्त्यक्त्वा बामनत्वं कृता कृतिः । जिनरत्तस्य संजातः श्याम वर्णन केवलम् ।। १६॥
अब कुमार ने अपनी वामन-बौने की प्राकृति को छोड़ दिया और यधार्थ जिनदत्त की प्राकृति को धारण कर लिया परन्तु शरीर रंग श्याम-काला बना लिया ।। १६॥
विस्मिताभि स्ततस्ताभिः स लज्जाभिश्च भूपतिः । प्रोचे तात स एषायें परं वर्णेन नो समः ॥ २० ॥
इसे देखकर वे दोनों अद्भुत प्राश्चर्य में डूब गयीं, लज्जा से १५० ]