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विनाथनेन नार्धन्ति विम्लाः सकलाः क्रियाः । विहीना यौवनेनेव सभूषाः पण्य योषिताः ।। ५२ ।।
बिना धन के सम्पूर्ण उत्तम क्रियाएँ शोभनीय या महत्त्वपूर्ण नहीं होती हैं। जिस प्रकार यौवन विहीन वैश्या सुन्दर वेष-भूषा सहित होने पर भी शोभायमान नहीं होती ।। ५२ ।।
कृत मेतेन तातावि घनेन मम साम्प्रतम् । क्यापि करोम्येष धनोपार्जनमुत्तमम् ।। ५३ ।।
गत्या
अब तक पिता के घन द्वारा मैंने जीवन यापन किया किन्तु इस समय मुझे कहीं भी जाकर स्वयं उत्तम धनोपार्जन करना चाहिए। पुनः सोचने लगा प्रिया का क्या होगा उसे भी यहाँ रखना उचित नहीं ।। ५३ ।।
प्रिया मे तां विश्रायातु मन्दिरेतुि सुकः उपायं तं विवास्यामि येन स्यात् कमलामला || ५४ ॥
तब क्या करना ? ठीक है वल्लभा को उसके पिता के घर शीघ्र भेज देता हूँ, अर्थात् विमला को पोहर छोड़ दूंगा और मैं स्वयं वंसा उपाय करूंगा जिससे निर्मल सम्पदा अर्जित हो सकेगी ।। ५४ ।।
विचिन्येति ततो लक्ष्य वृत्तिरेष व्यवस्थितः । कुतोऽपि ज्ञात वृत्तान्तस्तमाहूय पिता व्रवीत ।। ५५ ।।
इस प्रकार योजना बनाकर वह आस्वस्थ हुआ और शीघ्र ही प्रमाण की तैयारी करने लगा । अपने लक्ष्य को व्यवस्था में दत्तचित्त हो गया। किसी भी प्रकार उसके पिता ने इसके लिया। उसी समय अपने एकलौते लाड़ले प्रिय इस प्रकार दुलार से कहने लगा ।। ५५ ।।
विषण्णोऽसि वृथा वत्स किमेषं कुरु धर्नरेभिरहं पुत्र माने बंधा
अभिप्राय को ज्ञात कर पुत्र को बुलाया श्रीर
वाञ्छितम् । मवोश्वराः ।। ५६ ।।
हे वत्स, तुम क्यों वृथा दुखी होते हो, तुम्हें जो प्रिय हो वही करो इच्छानुसार क्रीड़ा करो, इस धन पर तुम्हारा ही अधिकार है मैं तो नाम के लिए इसका स्वामी हूँ ।। ५६ ।।
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