________________
नित्सितो मया वस कोषाध्यक्षः सहस्रशः। यवन्यथा महायुद्ध स्पृशमि तय मस्तक.म् ॥५७ ।।
कोषाध्यक्ष को मैने बहत डाटा है, हजारों बार उसे तिरस्कृत किया है, हे पुत्र मैं तुम्हारे सिर पर हाथ रखकर शपथ पूर्वक कहता हूं कि वह अब आगे कभी भी ऐसाई इनेमा !
विनोदेनामुना किन्तु कुलकेतो न शोभसे । कृतं हि प्रथमं पुसो महायापनियन्धनम् ॥ ५८ ॥
परन्तु हे शुभे, महाबुद्धिमन ! यह विनोद तुम्हें शोभा नहीं देता तुम कुल की पताका हो, जिन महापुरुषों ने द्यूत खेला है वह उन्हें महा पाप का कारण ही सिद्ध हुपा है यथा युधिष्ठिर आदि ॥ ५८ ।।
कार्यासु जिनेन्द्राणां भवनानि महामते । सुवर्ण रुप्य रत्नेशच प्रतिमाः पापनाशनाः ॥ ५ ॥
अतः हे पुत्र पुण्यवर्द्धक, पाप भञ्जक महान विशाल जिनालय बनवाओ, हे महामते सुवर्ण, चाँदी, रत्नमयी प्रतिमाएं बनवाकर प्रतिष्ठा. कराम्रो, जिससे पाप कमों का नाश होगा ।। ५६ ।।
गीत बावित्र नत्यादि तव च विवानिशम् । चतुर्विषाय संघाय देहि दानं यथा विधि ॥ ६० ॥
उन जिनालयों में ग्रहनिश भजन गान नृत्यादि कर उत्सव करो। चतुर्विध संघ के लिये यथाविधि दान देयो ।। ६० ।।
सिद्धान्ततर्क साहित्य शब्द विधादि पुस्तकः । लेखयित्वा मुनीनाञ्च दत्तं पुण्यं समर्जय ॥ ६१ ॥
यही नहीं सिद्धान्त, तर्फ साहित्य, शब्दकोष प्रादि उत्तम ग्रन्थ लिखवाकर मुनिजनों को दान कर श्रेष्ठ पुण्यार्जन करो।। ६१ ।।
कपवापोतडागामि प्रमाधि बनानि च। पुत्र सर्वाणि चित्राणि यथाकामं विधाय ।। ६२॥
करूगादान करना भी उत्तम और प्रावश्यक है क्यों कि व्यवहार धर्म भी चलाना कर्तव्य है । अतः तुम स्वेच्छानुसार कूप, तडाग. उद्यान, ६२ ]