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मनोहर क्रीडागृह श्रादि का कलापूर्ण निर्माण कराओ। अन्य भी विचित्र कार्य जो कुछ करना चाहते हो, वे रोक टोक करो। तुम्हारे मनोरथ में कोई भी बाधा नहीं श्रायेगी। यह सब अपरिमित वैभव तुम्हारा ही है ।। ६२ ।।
विवेश मानसे तस्य न सा शिक्षा विलासिनी । यतेरिव परं तेन शुश्रूवे श्रघो विलोकिना ।। ६३ ।।
पिता द्वारा श्रनेक प्रकार समझाने पर भी उसके चित्त पर कुछ भी उस शिक्षा का प्रभाव नहीं हुआ। वह एक मौनी यति-साधु की भांति निश्चल बना, मुख नीचे किये सब कुछ सुनता ही रहा पर मन तनिक भी नहीं पसीजा ।। ६३ ।।
चिन्तितं च पुनस्तेन नोपलम्भो भविष्यति । यथा तथा विषास्यामि कि मे बहुविकल्पनैः ॥ ६४ ॥
पुनः उसने कृत दृढ निश्चयानुसार यही विचारा कि इस प्रकार मुझे यथोचित उपलब्धि नहीं होगी । अनेकों विकल्पों से क्या प्रयोजन ? मैं वही करूंगा जिसे कि सोचा है ।। ६४ ।।
अनुमन्ये च तां तात भारतीमेव मस्त्वेति । प्रणम्य तं जगामासी प्रेयसी सदनं
ततः ।। ६५ ।।
यह विचार कर बोला, तात, मैं मानता हूँ आपकी वारणी मुझे "भारती सरस्वती के समान मान्य है ।" इस प्रकार कह पिता को नमस्कार कर वह उद्योग शील महामना अपनी प्रेयसी के प्रासाद में गया ।। ६५ ।।
अभ्यु स्थानादिकं कृत्वा तया ज्ञातं मनोगतम् । व्यासकमानसं चक्रे सविलास कथान्तरे ।। ६६ ।।
पतिदेव को आया हुआ ज्ञात कर वह पतिव्रता शीघ्र ही उठ खड़ी हुयो | यथोचित बासन प्रदानादि कर स्वागत किया, एवं पतिदेव के मनोगत अभिलसत को ज्ञात कर कुछ अन्यमनस्क हुयी परन्तु पतिदेव के मनोरंजनार्थ पुराण पुरूषों की कथा वार्ता प्रारम्भ की। विलास पूर्वक उसके उदास मन को प्रातन्वित करने वाले उपाख्यान सुनाये ॥ ६६ ॥
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