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क्षणान्तरं ततः स्थित्या तयेति किल चिन्तितम् । नयामि किल वेश्म स्वमेतं वैचित्यहानये ॥ ६७ ॥
इस प्रकार कुछ क्षण स्थित रहकर उस पतिव्रता ने विचार किया, इनके मन विषाद को दूर करने के लिए कुछ समय के लिए अपने पिता के घर ले जाना उचित होगा । क्योंकि वहाँ जाने से स्वयं इनका व्यथित चित्त शान्त हो जायेगा ।। ६७ ।।
ऊचे तयार्य पुत्राच मया मा भरतो मम । पित्रा सु-प्रहोता लातु' तन कि क्रियतामिति ॥ ६८ ।।
इस प्रकार तर्कणा कर वह बिनम्रा कहने लगी हे प्रार्य पुत्र प्राज मेरे पिता के यहाँ से प्रापके साथ मुझे ले जाने का समाचार प्राया है इसमें माप ही प्रमाण है जैसा उचित समझ करें। ठीक ही है श्रेष्ठ कुलीन घराने की पुत्रीयाँ-पुत्रबधू छाया समान पति का अनुकरण करती हैं ।। ६८ ।।
प्रापयामि पितुर्गेहमतएव मिषाविमाम् । विभाव्येति बभागोमा युक्तमेवं वरानने ।। ६६ ॥
समयोचित वार्ता को सुनकर वह भी विचारने लगा, "ठीक ही होगा इसी बहाने से इसे इसके पिता के घर रख कर मैं स्वतन्त्र अपने कार्य को सिद्ध कर सबूगा।" वह बोला, हे चन्द्रमुखी ! वस्तुत: यही युक्ति संगत है। हमें चम्पानगरी चलना चाहिए ।। ६६॥
प्रापृच्छ येति ततस्तातमनुज्ञातौ गतौ सुखम् । परां जनेन संप्राप्तौ चम्पां चारू रुगोपुराम् ।। ७० ।।
तदनन्तर वह अपने पिता के समीप गया एवं ससुराल जाने के लिए पूछा । पिताजी ने भी उसके मन बहलाव के उद्देश्य से जाने की प्राज्ञा देदी । पिता की अनुमति प्राप्त कर उसे परम सुख हुप्रा । कुछ श्रेष्ठ जनों के साथ प्रस्थान किया और शीघ्र ही विशाल सुन्दर गोपुरों से शोभित चम्पापुर में जा पहुँचे ।। ७० ।।
ज्ञातवृत्त स्ततो थेष्ठि विमलामुक्तिो गृहम् ।
निभ्ये स्वयं परं प्रोत्या तत्रास्थादिनपञ्चकम् ।। ७१ ।। ६४ ।