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जवाई का प्रागमन ज्ञात कर श्रेष्ठी विमल अति प्रानन्दित हा । स्वयं जाकर प्रागवानी की । प्रादर पूर्वक घर प्रवेश कराया, पर प्रीति से उसे अपने प्रालय में रहने की अनुमति दी। इस प्रकार वह कुमार जिनदत्त भी वहाँ अपनी प्रिया सहित पांच दिन तक ठहरा-विश्राम किया ।। ७१।।
अन्येचुर्गतवानेष कोडितु प्रियया सह ।
प्रमदोद्यानमुद्दाम कामविश्राम मन्दिरम् ।। ७२ ॥ । एक दिन वह अपनी प्राणप्यारी के साथ प्रमद उद्यान में क्रीडार्थ गया। यह मनोहर, विस्तृत एवं सुसज्जित बाग साक्षात् कामदेव के मन्दिर के सदृश था ।। ७२ ।।
मंजु गुञ्जलिमात बद्धतोरणमालिके । मन्दगन्धवहोद्भूत कामिनीकुन्तलाल के ।। ७३ ॥
वहाँ मति रमणीक विश्राम गृह था। जिसमें तोरण मालाएँ लटक रहीं थी, पुष्प मालाएँ बंधी थी, जिन पर गुञ्जन करते मधुकर मानों नृत्य कर रहे थे । मन्द-मन्द हवा बहने लगी मानों कामिनियों के कुन्तल घुघराले बालों से क्रीड़ा करना चाहती हो ।। ७३ ।।
सुगन्धकुसुमामोद मत्त कोकिल कोमले। भनल्प फल संभार नम्र सर्वमहोरूहे ॥ ७४ ।।
सुगन्धित कुसुम खिल रहे थे । उनको सुगन्ध से मत्त कोकिला समूह, अनेकों फलों से भरे पादपों में कामोद्दीपक राग अलाप रही थीं ॥७४ ।।
चिरं चिक्कोडतत्रासौ सर्वेन्द्रिय सुखामहे । कीडाद्रि दीपिका वल्ली विटयादि मनोहरे ।। ७५ ।।
इस सर्व इस्त्रियों को सुख देने वाले रम्य उद्यान में चिरकाल तक नाना प्रकार की क्रीडाएँ की। कभी दीर्घ वापिकानों में जलकेलि की तो कभी दुमच्छाया में विश्राम एवं वल्लिमण्डपों में प्रामोद-प्रमोद करते रहे ॥ ७५ ॥
भ्राम्यता थतत स्तेन तत्रापशी महौषषिः । शिस्त्रायां पारितादृश्यं या करोति नरं क्षरणात् ।। ७६ ।।