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हे कान्ते ? हमने राग से अथवा द्वेष से या रतिक्रीड़ा के कौतुकवश, मान से मुग्ध हो मन से अथवा कामदेव की विवशता से यदि कुछ अनुचित व्यवहार किया हो या कुछ ऐसा कहा हो तो आप क्षमा करें ऐसा उस विगत राग-शुद्ध चित्त, विशुद्ध वृद्धि कुमार ने अप से कहा। वे भी सुन्दर चरित्र, हित में चित्त वृत्ति लगाने वाली उसकी वारणी शान्ति से सुन रहीं थीं ॥ ९० ॥
प्रोक्ता शिवरं
त्रिचाहम् ।
तदखिलं क्षमये श्रुत्वेति ताश्चररण मूलगता: समूचुः ॥
क्षान्तं
सदास्माभिः |
क्षभ्यं
सफलं च बुरोहितं नः ॥ ६१ ॥
समस्तमपि नाथ
त्वयापि
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पुन: वह कहने लगा, हे देवियो ! "हमें श्राप सब लोग मन, वचन, काय से क्षमा करें।" यह सुनकर वे उसके चरणों के समीप जाकर विनयावनत बोली हे नाथ ! हमारी थोर से पूर्ण क्षमा है । आप भी हमारे समस्त दुष्कृत्यों को क्षमा करें ॥। ११ ॥
संप्रच्छय सर्वमिति लोक मसोल यत्रेव चन्दन तरूस्तत एव शिश्राय साघु पदवीं सुहृवा संवेग हृदयं रपरश्च
शुद्ध
चित्तो । सर्पः ॥
सभेत: ।
भव्यैः ।। २ ।।
दृढ चित्त कुमार ने सम्पूर्ण बन्धु-बांधवों से क्षमा कराकर प्राज्ञा ली । सच ही है जहाँ चन्दन का वृक्ष होता है विषधर सर्प वहीं रहता है | अतएव उसने अन्य सभो संवेगधारी भव्य जनों के साथ शुद्ध भाव से जिन दीक्षा धारण की ।। ६२ ।।
पुण्यंः ॥
शभ दम यम सक्ता गेह वासे विरक्ताः । सितसि चय पदेन प्रावृता वाय जिन पतिपद मुले HT बसूबु विरक्ता | स्तदनु विश्वचिता स्तस्य कान्ताः समस्ताः ॥ ६३ ॥
इस समय वे गृहवास से पूर्ण विरक्त हो राम कषायों का शमन,
दम- इन्द्रिय निरोध, यम यावज्जीवन चारों प्राराधनाभों की साधना में अटल होगी। अपने पुण्य द्वारा वे भी जिनपति के पाद मूल में विरक्त हो
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