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जाता है उन स्थलों पर कुमार को ले जाकर रमाने का प्रयत्न करते ।। ६-१० ॥
इतस्ततः स्थिताः स्फार श्रृंगाराः स्मरबीवितम् । गमयन्ति गताशंकचे कस्तो नैवतं यथा ।। ११ ।।
उसको चारों मोर काम भोग श्रृंगारादि से जीविका चलाने वाले घेरे रहते । कुमार के मन को विकृत करने में कोई समर्थ नहीं था। सभी को निराशा ही हाथ लगी ।। ११ ॥
विचित्राणि च वस्त्राणि समं मात्यविलेपनैः । विभूषश्च यच्छन्ति प्रत्यहं तस्य ते निजाः ॥ १२ ॥ ताः कथास्तानि गोलानि तानि शास्त्रारिश नम्मंतत् । कुर्वन्ति सुहृवस्तस्य दीप्यते येन मन्मथः ॥ १३ ॥ प्रारभ्यते पुरस्तस्य परं प्रेाकं च तत् । राग सागर कल्लोले प्लाभ्यन्ते येन देहिनः ।। १४ ।।
नाना प्रकार के सुन्दर- श्राकर्षण भरे वस्त्र माभूषण, विभूषा के प्रसाधन माल्य कुसुमादि उसके लिए प्रतिदिन दिये जाते हैं, राम वर्द्धक कथाएँ सुनाते हैं, कामोद्दीपक राग रागनियां-संगीत सुनाये जाते हैं. ऐसे कामतन्त्र शास्त्र सुनाये-पढाये जाते हैं ताकि किसी प्रकार उसके हृदय में काम वासना उछीप्त हो, जागे थे ही प्रयत्न किये जाते हैं किन्तु उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । जिससे प्राणियों के हृदय में राग सागर उमड पडे इसी प्रकार के उसे नाटक दृश्य मादि दिखलाये जाते हैं, ऐसे ही समवयस्कों के साथ उसे रमाने की चेष्टाएँ की जाती हैं, उसी प्रकार की नाट्य शालाभों में ले जाया जाता है किन्तु सब निष्फल ही प्रतीत होता है ।। १२-१३-१४॥
इस प्रकार समय बोलता गया। समय की चाल को कौन रोक सकता है। क्षण-क्षण पल-पल कर उसे तो जाना ही है प्रतीत की घोरः । अस्तु,
अर्थकदा जगामासौ नित्यमण्डित संगीतं ।
वयस्यैः सहितस्तु गं कोटिकूटं जिनालय || १५ ॥
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