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अतः शुद्ध मनः सम्यक् स्वं विधेहि महामते । गोषयन्तीति सा तेन श्रेष्ठिना भगिता पुन: ।। ६० ।।
अतः हे महामते ! बुद्धिमन ! अपने मन को शुद्ध करो, भले प्रकार मन से कानुष्य को निकाला, पति नारी के प्रति दस दुष्ट विचार को छोड़ो। इस प्रकार उस महासती ने इसे सम्बोधित किया किन्तु उस काली कमरिया पर कुछ भी असर नहीं पड़ा, वह मोहा-ध उसी धुन में उसे कहने लगा ।। ६०॥
पाषाए हृदया जाने सत्यं त्वं बाल पण्डिता। निदाक्षिण्यतया स्माकं संतापायव निमिता ॥ ६१॥
प्रोह, तुम सचमुच बाल पण्डिता हो, पाषाण हृदया हो ऐसा मुझे प्रतीत होता है । तुम्हारी चतुराई, दाक्षिण्य सम्भवतः हमारे संताप के लिए ही निर्मित हुआ है ।। ६१।।
बहिहल्लासि लावण्यं प्रसन्नानन बन्नमाः । अन्तर्दष्टासि दुबद्ध विष बालोव किं वृथा ॥ ६२ ।।
बाह्य में तुम्हारा लावण्य उल्लास भरा है, प्रसन्न मानन चन्द्रमा ही है किन्तु हे दुर्बुद्ध ! क्यों अंतस को वृथा ही अहिवत् दंश रही हो। विषवल्ली समान व्यर्थ ही प्रारण संहार करती हो ।। ६२ ।।
त्वं विधेहि पयाभीष्टं संङ्गरोयं पुनर्मम । त्वन्मुखालोकनादन्यत करिष्यामि न किञ्चन ।। ६३ ।।
शीघ्र ही तुम मेरे अभीष्ट की सिद्धि करो, तुम्हारे साथ मेरा संगम हो यही तुम्हें करना चाहिए । तुम्हारे मुखाब्ज अवलोकन के अतिरिक्त मै अन्य क्या करूँगा ? अर्थात् प्रापका मुखपंकज निहारने के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं करूंगा ।। ६३ ।।
परमेवं विध प्रेमासक्तः सर्वजनप्रियः । भक्तरप दिन देवानां प्राणान् प्रोन्झामिते पुरः ।। ६४ ॥
तुम्हीं मेरे प्रेम की पुतली हो, सर्व जनप्रिय तुम्हारा ही प्रसाद है, भक्ति और आराधना का फल क्या मैं अपने प्राणों को भी प्रभी मापके सामने विसर्जित कर दूंगा ।। ६४ ॥ ११४ ]