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निबन्धं तस्य त ज्ञात्वा समुवाच नपास्मजा। यद्याग्रह सस्पूच्चैः पृण ( शलपारि ।। ६५ ।।
श्रेष्ठी का इस प्रकार कठोर दुराग्रह देखकर, श्रीमती राजकुमारी सावधान होकर, निर्भय इस प्रकार बोली, यदि आपका ऐसा दृढ़ संकल्प है, महान कदाग्रह है तो ठीक है किन्तु में जो कुछ कहती हूँ उसे ध्यान से सुनिये और तदनुसार करिये ॥ ६५ ॥
तापत प्रतीक्षतां मास षटकं कान्तस्य कारये । नाम्ना तस्यैव कृत्यानि यावत् पश्चात् स्वदौहतम् ॥ ६६ ॥
मैं छ: महीने पर्यन्त पतिदेव की प्रतीक्षा करूगी और उन्हीं के नाम से क्रियाकाण्डादि भी करती रहेंगी। यदि इस अवधि में उनका समागम नहीं हुआ तो प्रापके अभिप्रायानुसार चलना मुझे स्वीकृत है ।। ६६ ॥
पतोऽधुना परित्यज्य भवन्तंगत भस का । बिना वाच्य तयाशक्ता नेतु जन्म किमेकका ।। ६७ ॥
प्रतएव इस समय प्रापके बिना भलाप्रिय भर्ता के बिना मैं एकाकी जीवन यापन किस प्रकार कर सकूँगी ।। ६७ ।।
युस्तायुक्त विचारशी भवानेव हि भूतले। प्रसस्वतचनादेवं कर्तव्यं मम का अतिः ॥ ६ ॥
फिर संसार में युक्त और प्रयुक्त का विचार करने वाले प्रापही एक विशेषज्ञ हैं। फिर भला पापके वचनानुसार कार्य करने में मेरी क्या क्षति है ? प्रापका परामर्श ही मान्य है ।। ६८ ॥
एवं श्रुत्वा वदत् सोऽपि वीर्घ निश्वास्य सुन्दरी। एवमस्तु परं मूथान् विक्षेप: काल गोचरः ।। ६६ ॥ स्ववीयानन शीतान्शु स्वद्वाचामृत निझरैः । मन्द मम्मथ सन्ताप स्तपापि स्थितिमादधे ॥७॥
इस प्रकार राजसुता का कथन सुनकर यह दीर्घ निश्वास लेने लगा। किसी प्रकार बोला, हे सुन्दरी ! ऐसा ही करो, परन्तु पुनःकाल विक्षेप नहीं करना । मैं तुम्हारे मुखरूपी शीतान्शु-चन्द्रमा के निहारने से मौर
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