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तो समय हो गया। इस प्रकार कह कर चला गया। अब इन्हें भी विश्वास सा हो गया कि अवश्य ही हमें पतिदेव का सङ्क्रम हो सकेगा क्योंकि इन्हीं का चरित्र था यह । अतः पति मिलन की श्राशा में प्राश्चर्य चकित हो तोनों वहीं रहीं || ८० ॥
नरेन्द्रोपि तथा कर्ण्य विस्मितः पारितोषिकम् । aarवस्मै जनः सर्वश्चित्रितश्च स्वचेष्टितैः ॥ ८१ ॥
राजा ने इसका वृत्तान्त सुना तो उसे भी बहुत प्राश्चर्य हुआ, अपनी प्रतिज्ञानुसार उसे प्रति सम्मान से सबको चकित करने वाला पारितोषिक (इनाम) दिया। सभी दर्शक इस घटना से चकित चित्र लिखित से प्रतीत हो रहे थे । उसका सम्मान किया क्यों कि तीनों सतियों को हंसा दिया और बुला दिया था । अपनी चेष्टाओं के अनुसार सम्मान प्राप्त कर सब अपने अपने स्थान पर चले गये ।। ८१ ।।
प्रथान्धेद्यू रभुक्त महान् कोलाहलस्ततः । प्रष्टाः कोऽपि नरेन्द्रेण किमेतदिति सो ब्रवीत् ।। ८२ ।।
दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही नगरी में चारों ओर अचानक कोलाहल मच गया। मारो, भागो, चलो, हटो आदि शब्दों से भयंकर भगदड़ सी मच गयी। उसी समय राजा ने किसी पुरुष से इसका कारण पूछा। वह पुरुष इस प्रकार कहने लगा ।। ६२ ।।
यथा राज गजो देव नाम्नामलय सुन्दर: 1 आलान स्तम्भ मुन्मूल्य निःशङ्कं विचरत्ययम् ॥ ८३ ॥
हे देव ! मलय सुन्दर नाम का पट्टगज मालान से बंधन तोड़कर भाग निकला है । भालान स्तम्भ को ही उसने उखाड़ फेंका है। इस समय निशंक और निर्भय नगरी में विचरण कर रहा है। उसके भय से त्रस्त जन कोलाहल कर रहे हैं ।। ८३ ।।
नरश्च वा ।
यः कोपि वशमायासि पशुरस्य विलम्बेन विना नाथ समाति यम मन्दिरम् ॥ ८४ ॥
उसके सामने जो भी पशु या मनुष्य प्राया नहीं कि उसे वश कर शीघ्र ही यमालय में भेज देता है अर्थात् सबको मार डालता है ।। ८४ ।।
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