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यह प्रतिदिन श्री जिनेन्द्र भगवान की उत्तम पदार्थों से नाना विव पूजा करता था, उत्तम, मध्यमादि प्रतिथियों साधुयों को विधिवत् दान देता था, वैयावृत्ति प्रादि तो करता ही था, दयादत्ति रूप दान देकर अपने साधर्मी जनों को भो संतुष्ट रखता था। इसके समान अन्य दयालु नहीं था। दोन दुखियों की सेवा, सहाय करने में निरन्तर तत्पर रहता था ।। ४६ ।।
असत्य वचनं लेभे तिमो यस्य ना मानसे वा महासत्य दुराचार बिजू भिरणाम् ।। ४७ ।।
यह सदैव सत्य भाषण करता था। मिथ्या भाषण कभी जिह्वा का स्पर्श ही नहीं कर सका । दुराचारी के साथ भी अनुचित व्यवहार नहीं करता था । मन सदैव स्वच्छ शुभ परिणामों से पवित्र रहता था ॥ ४७ ॥
सदाचार नीर
निरन्तर ववृधे विदुषा येन शश्वत्
धाराभिषेकतः ।
सज्जनता लता ।। ४८ ।।
निरन्तर सदाचार रूपी सलिल की धारा से अभिसिंचित सज्जनता रूपी लता विस्तार को प्राप्त हो गई थी, विद्वानों के मध्य इसकी कीर्ति लता सर्वत्र व्याप्त थी । अर्थात् विद्वज्जन सतत इसके गुणों का कीर्तन करते थे | || ४८ ||
सद्भानि येन जनानि कारितानि विरेजिरे । सुधासीतानि तुङ्गानि मूर्तिमन्ति यशांसिया ॥ ४६ ॥
।। ।।
इस श्रेष्ठी ने विशाल उत्तंग अनेक जिनालयों का निर्माण कराया, ये जिन भवन अत्यन्त शोभा युक्त थे. शुभ्र वां के थ। ऐसा प्रतीत होता । था मानों इसका. ( सेठ) पुण्य से वद्धित यश ही मूर्तिमान रूप धारण कर घटल खड़ा है - व्याप रहा है ।। ४६ ।।
भोग भौमं स्वभोगेल धमदं धन यो जिगाय महाभागो याचकामर
सम्पदा ।
भूः ।। ५० ।।
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इसने अपने भोगों से भोगभूमि को धन सम्पदा से कुबेर को और याचकों को इच्छित दान देने से कल्पवृक्षों को जीत लिया था । अर्थात् इस महाभाग्यशाली के यहाँ भोगभूमि से भी अधिक भोग्य पदार्थ थे,
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